Sunday 29 March 2015

परम्पराओं का पुनर्गठन, अब और विलम्ब नहीं

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परम्पराओं की स्थापना तो मनुष्य ने  मनुष्य समाज के लाभ के लिए ही की थी और आगे भी करता रहेगा  इसमें संदेह नहीं है. परम्पराएँ समय, परिस्थितियों तथा स्थानविशेष के आधार पर ही स्थापित हुईं. समय तथा परिस्थितियों के बदल जाने पर अनेकों परम्पराओं का औचित्य नहीं रहा यह तो सहजता से स्वीकार किया जा सकता है; परन्तु जहाँ कहीं मनुष्य समाज के ही किन्ही विशेष अंगों ने निहित स्वार्थवश अनेकों परम्पराओं को जीवित रखा तथा मनुष्य समाज के दूसरे अंगों को शोषित कर प्रताड़ित किया, यह बात सहज रूप से स्वीकार कर  पाना कठिन है.

उदहारण के लिए यदि जाति विशेष अन्य जातियों को उनकी जाति के आधार पर प्रताड़ित करे अथवा सामाजिक नियम स्त्री वर्ग के कष्ट का कारण बनें यह तो किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता. जाति के आधार पर समाज में पद तथा सम्मान, छुआ छूत का विचार, आजीविका के  साधनों की उपलब्धि  में भेद-भाव; स्त्री होने के आधार पर दहेज़ देने की बाध्यता अथवा परम्परा, पर्दा प्रथा, उनके संपूर्ण विकास को अनुपयोगी समझाना, उनमें न्यूनता की भावना  उत्पन्न करना आदि  मूलतः हिंसा है, फिर वह चाहे वैचारिक हो, व्यवहार की हो अथवा वाचिक हो.

यह पाया गया है की कुछ विचारशील मनुष्य भी इस प्रकार की हिंसक परम्पराओं में भी कुछ न कुछ  औचित्य खोज लेते हैं और  उनके न्यूनाधिक रूप में ‘विवेकपूर्ण पालन’ की सलाह देते हैं. वह तो यहाँ तक मान बैठते हैं कि यदि इन परम्पराओं को पूर्णतः नकार दिया गया तो सामाजिक ढांचा गिर पड़ेगा.
मेरा दृढ़ विश्वास है की भेद के आधार पर प्रचलित कोई भी परम्परा जिसमे किंचित भी हिंसा हो, तात्कालिक प्रभाव से नष्ट करने योग्य है. जहाँ तक रही सामाजिक ढांचे की बात, उसकी न तो मुझे कोई चिंता है और न मैं समाज के ठेकेदारों को इस हेतु चिंता करने का अवसर देने का हिमायती हूँ.

मेरा सोचना है की यदि हम व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक या अन्य किसी भी लौकिक व्यवस्था के स्तर, अर्थात किसी भी स्तर पर जैसे ही इस प्रकार की खोखली एवं हिंसात्मक परम्पराओं के तात्कालिक अंत का निश्चय कर लेंगे, हम तत्सम्बन्धी समस्त पूर्वाग्रहों से मुक्त हो जायेंगे. कहने की आवश्यकता नहीं की पूर्वाग्रहों से मुक्त बुद्धि स्वतः परम्पराओं का पुनर्गठन कर नयी परम्पराओं को जन्म देगी जो देश, काल और परिस्थियों के अनुरूप हो.

अगर आप या मैं यह निश्चय कर लें की हम जाति के आधार पर किसी को हीन नहीं समझेंगे तो उसी क्षण से हमारे परिवार का विरोध हमारे लिए अर्थहीन हो जायेगा. यदि कोई परिवार यह निर्णय कर ले कि वह न तो दहेज़ लेगा ने देगा तो समाज, सम्बन्धी, मित्रगण, धर्म कुछ माने नहीं रखेगा. यदि कोई मंदिर यह निर्णय कर ले की मंदिर में प्रवेश करने के लिए जाति का अथवा लिंग का भेद नहीं होगा तो इससे क्या अंतर पड़ेगा कि कितनों ने मंदिर में आना बंद कर दिया, कितने पुजारी छोड़ कर भाग गए और कितना चंदा  नहीं आया; नए भक्त आयेंगे, नए पुजारी आयेंगे, नए चंदे आयेंगे और सच पूछिए तो कुछ समय बीतने पर पुराने भी आयेंगे. इसी कारण मैंने कहा हमें किसी भी स्तर पर, चाहे वह जो भी हो, निर्णय लेना होगा. अन्य स्तरों का विरोध इतना प्रबल नहीं हो सकता कि परिवर्तन संभव न हो. यदि यह परिवर्तन अभी तक संभव नहीं हो पाया तो इसका कारण ‘विरोध की संभावनाओं का भय’ अथवा हमारा निजी स्वार्थ ही रहा है.

सामाजिक परम्पराओं के सन्दर्भ में हिंसा अनुवांशिक हो जाती है; पीढ़ी दर पीढ़ी चलती चली जाती है. दहेज़ के घाव को या किसी भी भेद भाव की चोट को सहन कर जिस परिवार की रचना होती है उसमें आगे आने वाली  पीढ़ियों में भी दर्द बना ही रहता है. हिंसक सामाजिक परम्पराओं को नष्ट करना पूर्णतः अहिंसा है, इस कारण यदि हिंसा के प्रति (हिंसक व्यक्ति के प्रति नहीं) यदि कोई हिंसा हो भी जाये तो वह भी अहिंसा ही होगी. अहिंसा हृदय का विषय है, इसमें अधिक तर्क-वितर्क वाली बुद्धि लगाना  या तो स्वार्थ है या  कायरता.
इस वस्तुपरक समाज में उस सामाजिक गुण का अभाव होता जा रहा है जिसके द्वारा व्यक्तिगत स्वार्थ पर अंकुश लगाया जा सके. ऐसे समाज में हिंसात्मक परम्पराएँ अधिक घिनौनी और कुत्सित हो जाती हैं. अतः इस प्रकार की परम्पराओं को जिनमें  हिन्सात्मकता हो नष्ट करना एक बड़ी प्राथमिकता बन चुकी है. क्योंकि हमारी शिक्षा प्रणाली मात्र आजीविका  के साधनों तक ही सम्बद्ध रह गई है अतः यह आशा करना की शिक्षा के प्रसार से अनुचित परम्पराएँ स्वतः समाप्त हो जाएँगी अर्थहीन है.

इस विषय पर हमें अंग्रेजी परस्त बुद्धिजीवियों से भी कोई आशा नहीं रखनी चाहिए जिनकी प्राथमिकताओं में देश तथा परिस्थितियों के लिए कोई स्थान नहीं है. उनकी प्राथमिकता समलैंगिक सम्बन्धों का औचित्य हो सकती है अथवा उनको यह चिंता हो सकती है दहेज़ के विरुद्ध दर्ज़ याचिकाओं में 10% सत्य नहीं होतीं अतः इस कानून में परिवर्तन होना चाहिए. वे यह नहीं सोच पाते की समलैंगिक सम्बन्ध देश की प्राथमिकताओं में नहीं आते तथा दहेज़ की घटनाओं में से शायद ही 5% शिकायतें ही दर्ज होतीं होंगी और उसमे से भी आधी से अधिक आगे पहले ही दबा दी जाती होंगी.

इस सामाजिक क्रांति में अब और विलम्ब की गुंजाइश नहीं है.

प्रमोद कुमार शर्मा

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