अप्राकृतिक
परिस्थितियों को प्रकृति के अनुरूप बनाने का स्वप्न देखना और सत्यनिष्ठा तथा
निःस्वार्थ भाव से उन्हें साकार करने का सतत प्रयत्न करते रहना, यही पुरुषार्थ है। यही किए जाने योग्य
एकमात्र कर्म है, यही निष्काम कर्म है;
यही वस्तुतः ‘अकर्म’ है। इस ही कर्म
में कुशलता प्राप्त करने की साधना ही सच्ची योग साधना है। संभवतः, निवृत्ति हेतु यदि कोई प्रवृत्ति हो सकती है, तो वह
यही है।
यह
सोचना कि इस स्वप्न के लिए प्रेरणा देने वाला कोई मनुष्य नहीं हो सकता उचित नहीं
है; पर यह भी सत्य है कि ईश्वरीय अनुकम्पा के
बिना न तो यह स्वप्न रचित हो सकता है और न ही साकार हो सकता है। ऐसे स्व्प्नों और
उनको साकार करने हेतु कर्मों में योगदान के लिए ईश्वर द्वारा प्रेरित सहयोगियों का
नितांत अभाव कभी नहीं होता।
एक
भ्रम जिससे हम मुक्त नहीं हो पाते वह यह है कि जब हमें अपने छोटे और तुच्छ
स्वप्नों को साकार करने में भी भयंकर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है तो महान स्वप्न किस प्रकार साकार हो सकते हैं? हम यह नहीं भूल सकते कि जब मनुष्य
स्वप्नदर्शी होता है तो स्वप्नों का स्वरूप भी लौकिक होता है, ईश्वरीय नहीं। हमारे लिए सभी स्वप्न, उनको साकार
करने के लिए किए गए कर्म तथा उनका फल; ये सभी लौकिक होते है।
हम साधना किसी परिणामविशेष हेतु करते हैं, पर सध जाता है कुछ
और। जो अनायास सध जाता है वह ईश्वरीय इच्छा के अनुसार होता है, हमारी कामना के अनुरूप नहीं।
इसी
लिए ही समझाया है कि निष्काम भाव से कर्म करते रहो और फल या परिणाम ईश्वर पर छोड़
दो। पुरुषार्थी व्यक्ति निष्काम कर्म करता रहता है तथा व्यर्थ की निराशाओं से मुक्त रहने के लिए ‘सम्पूर्ण विज्ञान’ का
आश्रय लेता है , ‘कारण और परिणाम’ वाले किसी ‘लौकिक विज्ञान’ का
नहीं।
प्रमोद कुमार शर्मा
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