अनुभव
तो सभी करते हैं। सभी जानते हैं कि जैसे वे देख या सुन सकते हैं, अन्य भी देख, सुन सकते हैं तथा जो देखा सुना है उसे
समझ सकते हैं। परंतु कितने हैं जिन्हे यह अनुभूति होती है कि जो देखने, सुनने तथा समझने आदि कि जो सामर्थ्य उनमें है वह वास्तव में एक विशिष्टता
है, तथा यह विशिष्टता सभी जीवों में कम या अधिक पाई जाती है? यदि कुछ और आगे चलें तो हम यह मान सकते हैं कि मानव जीवन एक अति-विशिष्ट
जीवन है और मनुष्य मात्र में सभी इस विशिष्टता के धनी हैं। निश्चय ही, हम व्यक्तिगत रूप में विशिष्ट हैं, पर दूसरे
मनुष्यों से अलग भी नहीं हैं, जो हमारी तरह ही विशिष्ट हैं।
जब तक यह अनुभव हमें सहज रूप में प्राप्त नहीं होता, हमारी सत्य की खोज टलती ही चली जाती है। जीवन में छोटे-मोटे कष्ट मिलने
पर भक्ति और अध्यात्म-ज्ञान में दिलचस्पी
प्रदर्शित करने वालों की कमी नहीं है तथा कष्टों का निवारण होने के पश्चात उनसे
विमुख होने वालों की भी कमी नहीं है। पर सत्य का ज्ञान प्राप्त कर सत्य के मार्ग
पर चलने वाले व्यक्तियों को ढूंढ पाना भी मुश्किल है। इस युग में जब मनुष्य अपनी प्रवृत्तियों की वशीभूत
होकर अपनी बल- बुद्धि को भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति हेतु लगभग पूरी तरह झोंक चुका है; सत्य, चाहे वह व्यवहारिक सत्य हो अथवा पूर्ण सत्य, दुर्लभ होता जा रहा है।
ऐसी स्थितियों में और इस युग
में सामान्य मनुष्य यदि अपने लौकिक जीवन को अहिंसा और परोपकार की भावना
को समर्पित कर सके तो यही पर्याप्त होगा। अर्थात, परोपकारी जीवन
के व्यवहारिक सत्य को साधना ही परमार्थ को साधना होगा। हाँ, जिन्हें
मानव जीवन की विशिष्टता के स्पंदन की अनुभूति हो चुकी है, पूर्ण सत्य की खोज उनका अधिकार ही नहीं अपितु कर्तव्य भी है। पूर्ण सत्य के
शोध की ओर अग्रसर ऐसे व्यक्तियों की सहायता तथा मार्गदर्शन करना उन सभी का कर्तव्य
है अध्यात्म की मार्ग पर औरों की अपेक्षा बहुत
आगे जा चुकें है। इस विचार में, जो विचार समाहित है, वह यह कि ज्ञानीजन सामान्य मनुष्य की आवश्यकता, अर्थात
परोपकारी और अहिंसक जीवन कि साधना हेतु प्रेरणा और मार्ग-दर्शन के अपने पुनीत कर्तव्य कि अवहेलना न करें।
प्रमोद कुमार
शर्मा
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