Saturday 31 December 2016

VAGDEVI SPIRITUAL PROCESS [#16182] अपने रिलीजन को गम्भीरता से लेने की आवश्यकता

Leave a Comment

हां रिलीजन शब्द का उपयोग विशेष रूप से इसके  समस्त मानवजाति से सम्बंध को उजागर करने हेतु किया है। व्यक्ति-विशेष की आत्मा अपने को जानने के लिए जो शोध करती  है, वह अपने को जगत से जोड़ती है या अलग करती है, यह विषय दूसरा है। मानव अपने सहज रूप को पहचान कर जीव और प्रकृति के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्धारण कर जिस धर्म को धारण करता है वह विषय भी दूसरा है। अंग्रेजी शब्द रिलीजन का भाव है; मानव समाज में मानव के पारस्परिक सम्बन्धों तथा व्यवहार को, ईश्वर पर विश्वास रखते हुये, इस प्रकार अनुशासित करने की वह व्यवस्था, जो जहां तक हो सके उस रिलीजन के अनुयायियों का भला करे।


परंपरागत रूप से रिलीजन एक ऐसा बंधन है जिसे मनुष्य बुद्धि या इच्छा से ग्रहण नहीं करता, बस सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत वह प्राप्त हो जाता है, और फलस्वरूप किसी सीमा तक समाज में व्यक्तिगत और सामाजिक अनुशासन बना रहता है। आधुनिक युग में साधारण मनुष्य भी अपना स्थान और परिवेश परिवर्तित करने में अधिक कठिनाई अनुभव नहीं करता। यही कारण है विभिन्न रिलीजन्स के बीच, यदि टकराहट नहीं तो कम से कम सहज व्यावहारिकता का अभाव हो ही जाता है। यह असहजता कष्टकारी तो होती ही है, पर प्रायः असहनीयता को जन्म देकर हिंसक प्रतिकार का कारण भी बनती है।

सभी रिलीजन्स प्रायः उसके अध्ययन और मनन पर तो बल देते हैं, पर उसके प्रचारक मनुष्य को अपने रिलीजन के संबंध में चिंतन का अधिकार नहीं देते। आधुनिक मनुष्य के पास मनुष्य जाति के इतिहास तथा पूर्व में विचारित दर्शन के ज्ञान का अभाव नहीं है, उसके पास सोचने की क्षमता भी है। यह भी नहीं कि ईश्वर या उसकी परिकल्पना के प्रति उसकी आस्था विशेष रूप से इस युग में कम हो गई हो। देश, काल और परिस्थितियों को ध्यान में रख कर वह बौद्धिक चिंतन तथा परीक्षण द्वारा अपने रिलीजन की मूल अवधारणा, अर्थात ईश्वर के अस्तित्व और उसके कालातीत रूप एवं निरन्तरता, में परिवर्तन किए बिना, उसके व्यवहार में वैज्ञानिक एवं व्यवस्थात्मक परिवर्तन को लाकर अन्य रिलीजन्स से टकराहट की स्थिति को समाप्त कर, आधुनिक मानवीय व्यवहार को सहज और उत्साह जनक एवं प्रफुल्लित कर सकता है।

परंपरागत रूप से ग्रहण किए हुये अपने रिलीजन का परिवर्तन अपने रिलीजन के विशिष्ट गुणों की अवहेलना है। अपने रिलीजन में कुछ कमी देख कर उसे त्यागना उचित नहीं; अपने रिलीजन को संवारना ही श्रेयस्कर है। परिस्थितियाँ तो बदलती ही रहेंगी परंतु प्रयत्न करने से रिलीजन्स में युग की आवश्यकता के अनुरूप मानवीय गुणों का समावेश होता रहेगा, तथा मनुष्य अपनी आध्यात्मिक चेतना को अक्षुण्ण रखते हुये  अपने सामाजिक कर्तव्यों को पूर्ण करता रहेगा। आवश्यकता बस इस बात की है कि आधुनिक मानव अपने रिलीजन को गंभीरता से ग्रहण कर उसका गहन अध्ययन, मनन, चिंतन कर जो भी अभ्यास योग्य हो उसके परीक्षण से न कतराये।


प्रमोद कुमार शर्मा

0 comments:

Post a Comment

Cool Social Media Sharing Touch Me Widget by Blogger Widgets