Sunday 23 April 2017

ओढा हुआ दर्द है भारत में शिक्षा की कमी

Leave a Comment

जिस देश में प्राचीन काल से ही ज्ञान-विज्ञान को मानव जीवन में सर्वोच्च स्थान दिया गया हो, उस देश को यदि देश में शिक्षा की अवस्था और व्यवस्था के संबंध में चिंता करने की आवश्यकता प्रतीत हो, तो इसे विडम्बना के अतिरिक्त कुछ नहीं कहा जा सकता। ज्ञानी ऋषियों, जगत के हितों के लिये जीवन को समर्पित करने वाले संत स्वरूप पूर्वजों ने मानव समाज के हर वर्ग के मनोविज्ञान और बुद्धि के रुझान को ध्यान में रख कर ज्ञान-विज्ञान के प्रचार और प्रसार  लिये जिस सहज-ग्राह्य और सर्व-ग्राह्य परम्परा की स्थापना की, उसे विदेशी आक्रमणकारियों ने लालची एवं हिंसक प्रवृत्ति से उपजी दुर्बुद्धि के वशीभूत होकर नष्ट करने में कोई कसर न छोड़ी।


परंतु, भारत की परंपरागत ज्ञान प्रसार की प्रणाली जो निःस्वार्थ बुद्धि और आत्मबोध से उपजी थी, के कारण देश के मानस ने ज्ञान के आध्यात्मिक रूप को सहजता से आत्मसात कर ही लिया, साथ ही साथ, पाश्चात्य ज्ञान, जो नितांत वस्तुपरक था, को ग्रहण करने में भी देश को कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई। शिक्षा के क्षेत्र में आक्रमणकारियों की कुटिल तोड़-फोड़ के बावज़ूद भी भारत कुछ ही वर्षों में उनकी ही प्रणाली में उन्हें ही मात देने में सक्षम हो गया। हाँ, यह हानि अवश्य हुई कि देश का शिक्षित वर्ग स्वदेश में उपजे ज्ञान के परंपरागत आध्यात्मिक आधार और तद्जनित मानवीय सम्मान और सहज स्वाभिमान के प्रति उपेक्षा का भाव रखने लगा। इस दुर्घटना के लिये वर्षों के दासत्व को उत्तरदायी ठहराना ही हो चुकी हानि को सीमित रखने का द्वेषमुक्त उपाय है।

आज यदि हम क्षण भर के लिये विश्व के ज्ञान भंडार से संभव व्यावहारिक वस्तुपरक उपलब्धियों के अनुमान लगाने पर अधिक बल न दें, तो हम पायेंगे कि भारत का वह वर्ग जो शिक्षित है और विभिन्न वैज्ञानिक परम्पराओं और प्रणालियों में पारंगत है, विश्व में किसी प्रकार से कम नहीं है; और, शायद संख्या के आधार पर लगभग सर्वोच्च शिखरों पर आसीन भी है। यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि परम्परागत रूप से भारत में ज्ञानार्जन का उद्देश्य; उसका संवर्द्धन, प्रसार, प्रचार और मानव का सर्वतोमुखी विकास, जिसमें आध्यात्मिक विकास मुख्य माना गया; ही था। दूसरे शब्दों में प्राचीन काल में ज्ञानार्जन का उद्देश्य स्वार्थ हेतु धनोपार्जन न होकर, लोककल्याण की भावना से ओत-प्रोत परमार्थसाधन ही रहा। हममें से जिन्हे बीसवीं सदी के पचास या साठ के दशक में शिक्षारम्भ का सौभाग्य प्राप्त हुआ है उन्होने विपरीत स्थितियों में भी भारतीय शिक्षकों में परमार्थचेतना के दर्शन किए हैं। यदि उचित वातावरण का निर्माण किया जा सके तो देश के शिक्षित वर्ग के मानस में रची-बसी परमार्थचेतना तथा आधुनिक वस्तुपरक-विज्ञान में उसकी दक्षता और मौलिकता, उसे विश्व के श्रेष्ठतम शिक्षक के रूप में स्थापित कर सकती है।

तो फिर कठिनाई कहाँ है? कठिनाई यह है कि हम पाश्चात्य अधिकारवादी सोच के शिकार हो गये हैं, और यह भूल गये हैं कि किसी भी पीढ़ी का यह धर्म, यह कर्तव्य, है कि वह आने वाली पीढ़ी को वह सब देकर जाये जो उसे विरासत में मिला है और जो कुछ उसने अपने जीवन में अर्जित किया है। और, किसी भी पीढ़ी के पास जो सहजता से सुलभ होता है, वह होता है, किसी भी विधि से अर्जित ज्ञान। ज्ञानार्जन या ज्ञानदान किन्ही विशिष्ट सुविधाओं बहुत मुहताज़ नहीं होता, जैसी कि हमारी सोच बनती जा रही है। देश के पास इतने संसाधन हैं कि थोड़ा-बहुत प्रयत्न कर भारत आज के तथाकथित विश्वस्तरीय ज्ञान से भी परिष्कृत ज्ञान न केवल देश को वरन विश्व को भी प्रदान कर सकता है क्योंकि भारतीय शिक्षक संस्कारिक रूप से आध्यात्मिक है, आत्मकेंद्रित है, स्वकेंद्रित नहीं। कमी इस बात कि है कि देश की राजनीति चाणक्य की वहिर्मुखी कुटिलता को तो देख पाती है पर उनके अप्रचारित शिक्षक तत्व को नहीं, जो उनका प्रमुख प्रेरणा स्रोत रहा। उस सनातन प्रेरणा को ग्रहण कर भारत अविद्या का अंधकार दूर करने में पूरी तरह सक्षम है। इस संदर्भ में यह कहना आवश्यक है कि वस्तुपरक पाश्चात्य शिक्षा में दक्ष जो लोग देश से पलायन कर चुके हैं उनसे कई गुने, उनके समकक्ष या शायद उनसे भी  बेहतर, देश में ही उपलब्ध हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम शिक्षा के क्षेत्र में पश्चिमी चश्मों के पीछे छलक़ते आंसुओं को पोंछ कर अपनी क्षमताओं पर अपना ध्यान केन्द्रित करें।


प्रमोद कुमार शर्मा  

0 comments:

Post a Comment

Cool Social Media Sharing Touch Me Widget by Blogger Widgets