इसमें संशय नहीं कि हम परम्पराओं के मूल्य और
उनकी विकृतियों के रूप से थोड़ा या अधिक अवगत हैं परन्तु किसी परम्परा का जन्म किन
सामाजिक, राजनैतिक तथा सामाजिक परस्थितियों में हुआ तथा किन किन कारणों से उनमें
बदलाव आया इस विषय पर हमारी जानकारी
प्राय: सतही है.
इसके अनेक कारण हैं; जैसे हमारी वर्षों की भौतिक एवं मानसिक परतंत्रता; पाश्चात्य इतिहासकारों और
समाजशास्त्रियों का एकतरफा अवलोकन, विवेचन एवं मूल्यांकन; सामाजिक टकराव से बचने
की हमारी प्रतिबद्धता तथा वर्गविशेष के निहित
स्वार्थ. यहाँ पर मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि परम्पराओं के विषय में मैं
अपने देश भारत तक ही सीमित हूँ, क्योंकि मेरे विचार से समस्त विश्व की चिंता कर
अपने देश को हाशिये में डाल देना उचित नहीं है.
किसी भी रोग का उपचार करने के लिए रोग के
आधारभूत कारणों की स्पष्ट जानकारी बहुत आवश्यक है. लम्बी परतंत्रता ने हमारी
शिक्षा पद्धति तथा स्वतन्त्र एवं निडर वैचारिक क्षमता को छिन्न भिन्न कर दिया था,
अतः सामाजिक कुप्रथाओं तथा पर्मम्पराओं की विकृतियों से निपटने का काम सीमित रूप
में गिने चुने समाजसेवियों तथा वृहद् रूप
में उन राजनीतिज्ञों के हाथ में आ गया जो सत्ता के हस्तांतरण द्वारा स्वतंत्रता
प्राप्त करने का सपना देख रहे थे.
प्रजातंत्र के इस युग में नेतृत्व के लिए लोकप्रिय बने रहने की मजबूरी तो होती ही
है, फिर ध्येय चाहे सत्ता प्राप्त करने का हो चाहे सत्ता चलाने का. अगर यह कहा
जाये कि प्रजातान्त्रिक राजनैतिक व्यवस्था सामाजिक कुप्रथाओं तथा परम्परागत
विकृतियों के मूल में न जा कर उनसे उसी सीमा तक छेड़-छाड़ करती है जहाँ तक सत्ता
चलाने में असुविधा न हो, तो गलत न होगा. चंदे से चलने वाले ‘धार्मिक’ मठाधीशों के
सम्बन्ध कुछ भी कहना व्यर्थ है. कुल मिला कर
यह मान लेना होगा कि सामाजिक कुप्रथाओं
के मूल कारणों से हम लगभग अनभिज्ञ ही हैं. ऐसा नहीं कि इस देश में अनेकों
कुप्रथाओं के मूल कारणों की थोड़ी बहुत विवेचना कभी न हुई हो. ऐसी विवेचनाओं के अंश
भारतीय भाषाओँ में कहीं कहीं मिलते हैं, पर न उनको पढ़ने वाले हैं और न पढ़ाने वाले.
हम अपनी कमियां और उनके कारण अंग्रेजी में ही समझ पाते हैं और यह प्रवृत्ति देश
में शिक्षा के विकास के साथ साथ अधिक प्रबल होती जा रही है. इस स्वतंत्र देश में
कोई भी समझदार व्यक्ति अंग्रेजी भाषा का विरोधी नहीं है (हाँ, चुनाव जीतने के लिए
कभी कभी कुछ राजनैतिक सुर सुनाई पड़ जाते हैं) पर संभवतः कुछ तो ऐसे अवश्य है जो हर
समय अंग्रेजी चश्मा पहनना उचित नहीं समझते. ऐसे ही लोगों के सहयोग से सामाजिक ह्रास
के कारण जानने तथा समस्या निवारण की दिशा
तय की जा सकती है.
सामाजिक कुरीतियों के
ऐतेहासिक कारणों के सम्बन्ध में शोध तथा उनकी विवेचना का कार्य नए सिरे से किया
जाये अथवा उपलब्ध शोध के आधार पर बढ़ाया जाये इसकी स्वतंत्रता शोध करने वालों को दी
जानी चाहिए परन्तु कार्य अविलम्ब आरम्भ होना चाहिए क्योंकि देश में स्वतंत्रता के
उपरांत बन चुकीं राजनैतिक परिस्थितियां जो वैश्विक स्तर पर चल रही स्वार्थी
उठा-पटक से भी प्रभावित हैं, विकृतियों को सामाजिक वैमनस्य में बदल सकतीं हैं.
जब एक विशाल देश की एक बहुत बड़ी जनसंख्या का
जीवन सामाजिक कुप्रथाओं तथा परम्परागत विकृतियों से अनुचित और हिंसात्मक रूप से प्रभावित
हो, उस समय सामाजिक सुधार उनके जिम्मे छोड़ देना जो अपने वर्ग या व्यक्तिगत
स्वार्थों में लिप्त हों एक बहुत बड़ी चूक मानी जानी चाहिए.
जिस देश में सामाजिक जीवन को सुचारू रूप से चलाने
के लिए वर्णाश्रम धर्म की स्थापना की गई हो वहां जातिवाद का अधर्म कैसे पनपा? जिस
देश में नारी को देवी माना गया वहां सभ्य और शिक्षित समाज में भी उनका स्तर निम्न
कैसे माना जाने लगा? मेरा तो यह भी मानना है कि, प्राचीन भारतीय जीवन पद्धति में भी
समय तथा परिस्थितियों के दृष्टिगत करते हुए कुछ परिवर्तन आवश्यक हों तो चरित्रवान
एवं निःस्वार्थ ज्ञानीजनों के सुझाव पर उनमें भी सुधार लाया जा सकता है. परन्तु पहले
सामाजिक ह्रास के कारणों से सम्बंधित सभी प्रश्नों के उत्तर शोध तथा साक्ष्यों के
आधार पर उपलब्ध होने चाहिए, अटकलों के
आधार पर नहीं; अन्यथा कानून बनते रहेंगे, सत्ता और शक्ति की राजनीति चलती रहेगी,
जिसके जो मन में आये वह बोलता रहेगा तथा सामाजिक भेद भाव के करेले पर आर्थिक
असमानता का नीम चढ़ता रहेगा.
प्रमोद कुमार शर्मा
प्रमोद जी आपका लेख अच्छा है
ReplyDeleteकारणों की खोज केवल वैचारिक क्रांति द्वारा खोजी जा सकती है
प्रमोद जी आपका लेख अच्छा है
ReplyDeleteकारणों की खोज केवल वैचारिक क्रांति द्वारा खोजी जा सकती है