अध्ययन, मनन, चिन्तन और अभ्यास, इसी
क्रम से पुकारा जाता है; और, यह क्रम
महत्वपूर्ण है। मात्र पढ़ लेने से कुछ हाथ नहीं लगता, यहाँ तक
कि कुछ समय के बाद स्मरण भी नहीं रहता कि क्या पढ़ा गया था। जो पढ़ा गया उसे अपने मन
में विचरण करने देने से हम पढे हुये को एक
तारतम्य में कुछ सीमा तक मन में बैठाने में सफल तो हो जाते हैं, पर जो पढ़ा गया है उसे समझ नहीं पाते। ऐसी स्थिति उन विद्यार्थियों की होती
है जो बार बार पढे हुये को उच्चारित कर या लिख लिख कर रट तो डालते हैं पर उसे
समझ नहीं पाते।
पर जब हम मन की निरंतर गतिशील प्रकृति, जिसे उसकी
चंचल प्रकृति भी कहते हैं, तथा कल्पनाशीलता का आश्रय लेकर, जो ज्ञात है उससे जोड़ कर, अपनी बुद्धि के अनुसार पढे
हुये का तात्पर्य जानने का विशेष प्रयत्न करते हैं, तो उसे न्यूनाधिक
सीमा में समझ भी पाते हैं। वस्तुतः परिश्रम पूर्वक यह सब करने के बाद ही ‘मनन’ की क्रिया का आरंभिक समापन हो गया ऐसा माना जा सकता
है। प्रायः बार बार इस प्रक्रिया को दोहराने, गुरुओं व ज्ञानियों
का सहयोग लेने व सहायक पुस्तकों के अध्ययन के बाद ही इसे स्ंतुष्टि के किसी स्तर तक
पूर्ण हुआ माना जा सकता है।
इस लेख में अध्ययन, मनन, चिन्तन और अभ्यास को सामान्य अर्थ में, जो शास्त्रों तथा सद्साहित्य के संदर्भ में हो सकता है, लिया गया है।
PROMOD KUMAR SHARMA
[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A
Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]
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