Friday 26 February 2016

राष्ट्रवाद; भारतीय संदर्भ में

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वसुधेव कुटुम्बकम की भावना का व्यवहारिक रूप है भारतीय राष्ट्रवाद। भौगोलिक सामीप्य, परस्थितियां तथा सांस्कृतिक समानता, एतेहासिक तथा सामाजिक समरूपता और पारंपरिक विचार स्रोतों की  एकरूपता तथा आपसी भावनात्मक संबंध को दृष्टि में रखते हुये यदि व्यक्तियों का कोई विशाल समूह स्वेच्छापूर्वक अपने सहअस्तित्व को स्वीकार करे एवं एक दूसरे के साथ सहयोग करते हुए अपनी सुरक्षा तथा जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति का निर्णय सहजता से ले तो राष्ट्र की भावना, विचार एवं उसके प्रति प्रतिबद्धता का संकल्प उत्पन्न होता है; जो पीढ़ी दर पीढ़ी व्यवहार में लाने के कारण स्वतः एक सामाजिक संस्कार बन जाता है। भारतीय राष्ट्रवाद एक सामाजिक संस्कार ही है।

इसी सामाजिक संस्कार के कारण एक साधारण दक्षिण भारतीय केदारनाथ की यात्रा करता है या कच्छ का रहने वाला जगन्नाथपुरी जाता है। इसी संस्कार के कारण एक आम भारतीय भगवान का स्मरण करने के बाद चावल पर दाल, वरण, माछेर झोल या सांभर उड़ेल कर हाथ से पहला ग्रास ग्रहण करता है या पेड़ों की पूजा करता है। यदि उत्तर के कैलाश पर्वत पर रहने वाले शिव के एक पुत्र गणेश को महाराष्ट्र में पूजा जाता है और दूसरे कर्तिकेय को सुदूर दक्षिण में तो यह भारतीय राष्ट्रवाद  की परिकल्पना का यथार्थ रूप ही है। अवश्य ही इस राष्ट्रवाद के मूल में किसी पूजन पद्धति का आग्रह या राजनैतिक अथवा आर्थिक विवशताएँ कभी भी नहीं रहीं। यह सब कुछ होता चला गया और जन जन को एक सूत्र में पिरोता चला गया।

यह कहना उचित नहीं कि अन्य राष्ट्रों के निर्माण के पीछे इसी प्रकार कि किसी प्रक्रिया का अभाव था या रहा होगा, पर यह कहना इतिहास सम्मत  है कि भारत का राष्ट्रवाद प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप में प्राचीन भारतीय दर्शन, चिन्तन तथा स्वीकृत मानव धर्म (कर्तव्य) कि व्यावहारिक परिभाषाओं पर आधारित है, जिसमे ईश्वर के प्रति आस्थावान रहते हुए मानवीय जीवन मूल्यों के प्रति लौकिक  प्रतिबद्धता का गूढ़तम प्रावधान है। भारतीय जीवन पद्धति जिसमें आस्था, सहजता, औदार्य, अहिंसा, क्षमाशीलता और कर्तव्यनिष्ठा (जिसमें जीवन में भोग कि प्रवृत्ति भी है तथा किंचित वैराग्यपूर्ण निवृत्ति भी) भारतीय राष्ट्रवाद में स्पष्ट दृष्टिगोचर होते है।

भारतीय राष्ट्रवाद के मूल में सहअस्तित्व की भावना की प्रधानता है, इसी कारण भारत ने किसी बाहरी भूभाग पर कभी अतिक्रमण नहीं किया। यही नहीं, भारत उस पर हुए विदेशियों के अतिक्रमण के पीछे छिपे हिंसात्मक स्वार्थ को पूरी तरह समझ भी नहीं पाया, इसी कारण उसे दासता का कष्ट लम्बे समय तक उठाना पड़ा। यह उल्लेखनीय है कि अपनी स्वतन्त्रता का हनन सह कर भी भारत ने आक्रमणकर्ता विदेशियों के साथ समभाव और सम्मानपूर्ण व्यवहार बनाए रखा। जो इसे भारत की  दुर्बलता समझते हैं, वे यह नहीं समझ पाते कि, समभाव यदि सहज और स्वाभाविक हो तो द्वैत, विषमभाव या दुर्भाव अस्वाभाविक हो जाता है। जिनका मन संस्कारवश अद्वैत में रमता हो वे अलग अलग सम्प्रदायों कि कल्पना या स्थिति को पूर्णरूपेण आत्मसात कर ही नहीं सकते। ऐसे समाज में यदि बाहरी रूप से विभिन्न संप्रदाय या पद्धतियाँ दीखतीं भी हों तो वह संस्कृतिवश होतीं हैं, संस्कारवश नहीं। भारत के मानस ने और मनीषियों ने इस तत्व को समझा है और समय समय पर इसका प्रतिपादन भी किया है। ऐसे कुछ मनीषियों को हम भली प्रकार जानते हैं; प्राचीन युग के महर्षि व्यास तथा महर्षि वाल्मीकि, मध्य युग के आचार्य चाणक्य एवं इस युग के विवेकानन्द, अरविंद, गांधी, सुभाष चन्द्र बोस, बाल गंगाधर तिलक तथा सर्वपल्ली राधाकृष्णन आदि के नाम इस संदर्भ में लिए जा सकते हैं, जिनसे हम भली प्रकार अवगत हैं।

नेशनलिज़्म की पाश्चात्य विचारधारा के आधार पर भारतीय राष्ट्रवाद को समझना वैसा ही दुष्कर है जैसे पुडिंग के उदाहरण से लड्डू को समझने का प्रयत्न करना। दुःख का विषय है कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐसे लोगों ने भी बढ़ चढ़ कर भाग लिया जो  भारतीय राष्ट्रवाद को समझने कि क्षमता ही नहीं रखते थे; यह और भी दुःखद है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत ऐसे ही लोगों ने भारत कि सत्ता संभाली। यह अत्यंत कष्टकारी हो जाता है जब हम पाते हैं कि हममें से कुछ द्वेषरहित सज्जन व्यक्ति भी मात्र अपनी अनभिज्ञता के कारण भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित करने का यत्न करते हैं। सच्चे अर्थों में राष्ट्रवाद राजनैतिक विषय नहीं, बल्कि वसुधेव कुटुम्बकम के संस्कार का व्यवहारिक आचरण है। यही भारतीय राष्ट्रवाद है।


प्रमोद कुमार शर्मा

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