हमारा
अमूल्य जीवन प्रायः मन की चंचलता के कारण अनगिनत और विविध संकल्पों को आधे-अधूरे
ढंग से निपटाने में ही चला जाता है। मन कभी भौतिक स्वार्थ पूर्ति की ओर दौड़ता है, कभी पारिवारिक तथा सामाजिक दायत्वों का
स्मरण कराता है, कभी परम्पराओं और सामाजिक व्यवहारों के निर्वाह पर बल देता है, कभी स्वतः के अभिमान, अहंकार और दंभ की रक्षा में
उलझाता है, कभी इन विविध प्रसंगों से त्रस्त हो मानसिक शांति
की खोज में विचरता है और कभी दुश्चिंताओं और हताशाओं से उबरने के प्रयास में रत
होने की चेष्टा की ओर अग्रसर हो जाता है। कुल मिला कर, अंत
में प्यासी अंतरात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बचता।
संकल्पशून्यता
तो एक आदर्श है। जिसे हम थोड़ा-बहुत समझ ही सकते हैं, व्यवहार में नहीं ला सकते। हाँ, यदि हम आवश्यक यत्न
कर स्वतः का एक ‘आदर्श’ जीवन-दर्शन
अपने चिंतन, मनन और निरंतर अभ्यास के लिए स्थापित कर सकें तो
हम ऐसे तमाम संकल्पों से मुक्ति पा सकते हैं, जिनसे न तो खुद
का भला होता है, न किसी दूसरे का और न समाज या आने वाली
पीढ़ियों का। संकल्पों की न्यूनता से प्रवृत्ति-निवृत्ति, व्यष्टि-समष्टि, कर्म-विकर्म-अकर्म, संयोग-वियोग आदि का सामंजस्य
स्थापित कर जीवन की सार्थकता की आभासिक अनुभूति तो की ही जा सकती है। यदि हम इस
मोड़ तक पहुँच सकें तो स्वतः दिशा निर्धारित कर आगे भी जा सकते हैं।
यहाँ
यह जानना नितांत आवश्यक है कि स्वतः का जीवन- दर्शन खोज पाने के लिए यह आवश्यक है कि
हम सर्वप्रथम स्वविवेक, सद्साहित्य में
वर्णित सद्विचारों तथा शास्त्रोक्त ज्ञान का आश्रय ले व्यर्थ संकल्पों को पूरा करने
की चेष्टाओं से धीरे-धीरे मुक्ति पाने का सिलसिला शीघ्रातिशीघ्र अपनी जीवन-पद्धति में
लागू कर दें।
संकल्पों
की बहुलता और विविधता से मुक्ति प्राप्त कर संकल्पों की अल्पता और उनकी श्रेष्ठता तथा
सार्वभौमिकता की ओर अग्रसर होना ही हमारे जीवन का एकमात्र संकल्प बन जाना चाहिए।
प्रमोद कुमार शर्मा
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