Monday, 25 April 2016

‘अतुल्य भारत’ की खोज

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र्वांगीण विकास और सामाजिक न्याय अब आधुनिक भारतीय जनतंत्र का परंपरागत कंठस्थ राजनौतिक मंत्र बन चुका है। जो सत्ता में हैं, सत्ता से उतार दिये गए हैं या सत्ता की लालसा रखते हैं, सभी इस मंत्र का पाठ दैनिक रूप से करते हैं।


दर्शनीय भारत के निर्माण की कामना भी उस भारतीय मानस के लिए स्वाभाविक है जिसने सदियों दासता का दुःख सहा है। परंतु इन सबके मध्य रह रह कर हमें ऐसी भौतिक और सामाजिक आपदाओं से लज्जित होना पड़ता है जिनका निदान सरलता से न तो राजनैतिक सुधार से किया जा सकता है, न धन से और न शासकीय या न्यायिक प्रक्रियाओं से। अन्यायपूर्ण मानसिकता, भौतिक, राजनैतिक और सामाजिक प्रदूषण, मनुष्य की ऐसी आवश्यकताओं का अभाव जो  प्राकृतिक रूप से सर्वसुलभ होनी चाहिए, इत्यादि, समय समय पर कुछ ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देती हैं जिनसे हम बौखला से जाते हैं, जैसे इस समय उपस्थित देश के विभिन्न भागों में उत्पन्न जलाभाव की परिस्थितियाँ। यों तो दोष किसी के भी सिर पर मढ़ा जा सकता है तथ मढ़ा जाता रहा है, पर हमें स्वीकार करना ही होगा की यह हमारे अपने ही पुराने पापों की गठरी है जिसे हमें तब तक ढोना ही होगा जब तक हम उससे मुक्ति के लिए कृतसंकल्प न हो जायें।

प्राकृतिक नियमों की घोर अवहेलना से जनित विचारहीन दृष्टि और दृष्टिहीन विचार, लोभी और अधीर मानसिकता, संवेदनशून्य और आडंबरपूर्ण परम्पराएँ, इन सबके के प्रति प्राचीन भारतीय चिंतकों के हमें भरपूर चेताया था, पर कालान्तर में अनेकों कारणों से हम पूरी तरह दिग्भ्रमित हो गए। अतुल्य भारत की राष्ट्रीय चेतना की खोज और पुनर्स्थापना हेतु अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है, जिसमें पुरानी त्रुटियों का  सुधार मुख्य रूप से शामिल है। अतुल्य भारत के आंतरिक और वास्तविक शृंगार की ओर  तत्काल ध्यान देना आवश्यक  है अन्यथा देर हो जाएगी।


प्रमोद कुमार शर्मा

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