Saturday, 7 May 2016

VAGDEVI SPIRITUAL PROCESS [#16151] संभवतः अन्याय का नितांत अभाव ही न्याय है

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न्यायपूर्ण क्या है, इसका निर्णय अत्यंत कठिन है। इसमें संशय नहीं कि न्याय असत्य पर आधारित नहीं हो सकता। परंतु, देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप व्यावहारिक सत्य को परिभाषित करने कि परम्परा प्रायः न्याय को इतना लचीला बना देती है कि कब न्याय अन्याय बन गया, यह पता ही नहीं चल पाता।


दूसरी समस्या मनुष्य की तार्किक बुद्धि उत्पन्न करती है, जो न्याय की परिभाषा को अत्यंत जटिल बना देती है तथा न्याय और अन्याय के भेद को इतना विरल कर देती है की किसी न्यायपूर्ण निर्णय में कितना अन्याय घुला हुआ है, यह पता ही नहीं चल पाता। प्रायः देखा गया है कि बुद्धि से निर्णीत न्याय को मन स्वीकार नहीं कर पाता। जहां तक रही चंचल मन द्वारा लिए गए न्यायपूर्ण निर्णयों कि बात, तो उनके बारे में जितना कहा जाए कम ही रह है; क्योंकि तब न्याय, परिस्थितियों के साथ- साथ, तात्कालिक मनःस्थितियों पर भी निर्भर करने लगता है।

संभवतः, मनुष्य के लिए न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की स्थापना का एकमात्र उपाय यही है कि जो कुछ भी न्यायसंगत न प्रतीत हो उसका यत्नपूर्वक पूर्ण त्याग। यह देखा गया है कि सहज मानव बुद्धि अन्यायपूर्ण स्थिति की अनुभूति सरलता से कर लेती है; इसके लिए किसी विशेष ज्ञान या प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती। यह माना जा सकता है की आदिममानव ने सभ्यता के प्रथम चरण में ही अपने मन का विकास कम से कम इस स्तर तक तो कर ही लिया था कि वह अन्यायपूर्ण कर्म तथा स्थितियों कि पहचान कर सके। कठिनाई यह है कि मनुष्य ने अपने जीवन की भौतिक आवश्यकताओं की आवश्यकता से अधिक पूर्ति को वरीयता देने का असहज लक्ष्य भी स्वेच्छापूर्वक अनजाने ही स्थापित कर लिया। मनुष्य जैसे जैसे अपनी सहज बुद्धि को असहज बनाता चला गया, मानव जीवन में अन्याय का प्रभाव बढ़ता ही गया। मनुष्य यदि यत्नपूर्वक सहजता की ओर लौटने का प्रयास करे तो अन्याय की पहचान आसान हो सकती है। अन्याय का त्याग कर मनुष्य न्याय की ओर बढ़ सकता है। हम, जब चाहे तब, अपने दैनिक जीवन  में सहजता की ओर प्रयाण कर स्वयम इस तथ्य की पुष्टि कर सकते हैं।


प्रमोद कुमार शर्मा

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