Saturday, 11 June 2016

योगाभ्यास के सन्दर्भ में ॐ

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स्मादोमित्युदाहृत्य    यज्ञदानतप:क्रिया:।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ता: सततं ब्रह्मवादिनाम॥ 
(गीता: श्लोक 24, अध्याय 17)
[इसलिये वेदमंत्रों का उच्चारण करनेवाले श्रेष्ठ व्यक्तियों की शास्त्रविधि से नियत यज्ञ, दान और तप आदि क्रियाएँ सदैव (परमात्मा) के नाम का उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं।]


एवं नामत्वेन प्रतीकत्वेन च परमात्मोपासन साधनम श्रेष्ठमिति सर्ववेदांतेष्ववगतम। जपकर्म स्वाध्यायाद्यन्तेषु च बहुश: प्रयोगात्प्रसिद्धमस्य श्रैष्ठयम।
(छांन्दोग्योपनिषद के प्रथमखण्ड के शांकरभाष्य से उधृत)
[भावार्थ: इस तरह नाम और प्रतीकरूप से परमात्मा की उपासना का उत्तम साधन है- ऐसा वेदान्त-ग्रन्थों में विदित है। जप, कर्म तथा स्वाध्याय के आदि एवं अंत में इसका बहुधा प्रयोग होने के कारण इसकी श्रेष्ठता प्रसिद्ध है।]

प्राचीन भारतीय दर्शन एवं शास्त्रीय पद्धतियों में जो भी क्रियाएँ मानवमात्र के भले के लिए बताई गई हैं उनमे क्रियाविशेष के लिए ईश्वर की कृपा तथा अन्तर्मन से उपजी श्रद्धा की अपेक्षा सदैव की गई है। किसी भी सदक्रिया के पूर्ण सम्पादन के लिए एकाग्र बुद्धि का सुदृढ़ और अविच्छिन्न रूप से संयुक्त होना तथा मन का श्रद्धाभाव से समर्पित होना आवश्यक माना गया है।

हमारा मनुष्य रूप में जन्म लेना तभी सफल होता है जब हमारी समस्त क्रियाएँ स्वतः के साथ साथ समष्टि को भी समर्पित हों। ऐसा होने पर स्वतः का विशेष लाभ तो अनायास ही हो जाता है।

योग के अभ्यास के आरंभ में का श्रद्धापूर्वक उच्चारण इसी भावना से प्रेरित है। कोई भी शास्त्र, ज्ञान या विज्ञान मार्गदर्शन कर सकता है, प्रेरित कर सकता है, स्पष्टीकरण भी दे सकता है; पर किसी को बाध्य नहीं कर सकता। किसी क्रियाविशेष, मत या विचार के लिए बाध्य या सद्मार्ग से विमुख तो अज्ञान या मतिभ्रम ही करता है।


प्रमोद कुमार शर्मा

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