विश्व का हर
छठा व्यक्ति भारतीय है। विश्व के निर्धन व्यक्तियों में से एक तिहाई भारत में रहते
हैं। भारत में रईसों की संख्या बढ़ रही है, पर गरीबी भी असरदार रूप से कम नहीं हो रही है। विश्व के 168 देशों में से
75 देशों में भारत से कम करप्शन है। सन 1700 से पहले भारत की गिनती अच्छे खासे
खाते पीते देशों में होती थी। उसके बाद कई अन्य कई देशों की जनता अधिक समृद्ध होती
गई, पर भारत का निर्धन वर्ग पहले से भी अधिक असंतुष्ट होता
गया।
1947
में विदेशी सत्ता से स्वतंत्र होने के बाद भारत के शासकों और समर्थ जनों ने भारत
की उन्नति के लिए समृद्ध देशों की ओर देखना तथा उनको ही उदाहरण मानना ही अधिक उचित
समझा। बिरले ही रहे होंगे जिन्होने भारत की अक्षमता और निर्धनता के मूल कारणों को
समझ कर आत्मविश्वास से किसी मौलिक समाधान के प्रयोगों को करने का साहस किया हो।
यद्यपि स्वतंत्रतापूर्व के कर्मठ विचारकों ने, जिनमें महात्मा गांधी का नाम सबसे ऊपर आता है, देश
के निर्धनतम और निर्बलतम वर्ग (जिनकी संख्या सर्वाधिक थी) के सहयोग से देश की
उन्नति की दिशा में प्रयत्न करने पर बल दिया था, किन्तु
आत्मविश्वासहीन शासकों और समर्थ वर्गों ने कुछ भ्रमवश, कुछ
स्वार्थवश तथा कुछ कर्मठता के नितांत अभाव के कारण, देश के
उच्चमध्यम तथा उच्च वर्ग को ही समृद्ध देशों के मानकों के अनुरूप योग्य और सक्षम
बनाने पर बल दिया। यह कार्य सरल था तथा इसमे सफलता प्राप्त करने की संभावना भी
अधिक थी।
देश
के पुनर्निर्माण की इस प्रक्रिया में मौलिक सोच और आत्मविश्वास का नितांत अभाव
झलकता है। फल प्रयत्न के अनुरूप ही हुआ। न
तो देश आधारभूत रूप से स्वावलंबी बन पाया, और न देश के निर्धनतम वर्ग के उत्थान हेतु कोई हल ही निकल पाया। यह तो
विडम्बना ही कही जाएगी कि जब भी हम देश के निर्बल और निर्धन वर्ग के उत्थान के
संबंध में सोचते हैं तो बाहरी सहयोग और
सहायता के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं सूझता। जो प्रबुद्ध मध्यम वर्ग आज से
65-70 वर्ष पूर्व देश के पुनर्निर्माण में ही अपना भविष्य देखता था, आज अपनी ही अधिक से अधिक भौतिक उन्नति के लिए ही व्यस्त हो कर रह गया है; और संभवतः इसी कारण बार-बार यही सिद्ध करने का प्रयास करता रहता है कि
उसके अपने विकास में ही प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप में देश का विकास है। समृद्ध देश
भी निजी स्वार्थ के वशीभूत होकर जैसे तैसे मध्यम वर्ग कि सुख-सुविधा की अग्नि में
आहुती डाल कर मध्यम वर्ग के इस भ्रम को निरंतर अधिक प्रबल करते रहतें हैं।
कहने
की आवश्यकता नहीं की प्रजातन्त्र, अब समाज
के उन विभिन्न वर्गों के समूहिक स्वार्थों की घटिया जोड़-तोड़ बनता जा रहा है जो चुनाव
प्रक्रिया और मत संख्याओं पर निर्णायक प्रभाव डालने में सक्षम हैं। समस्या और भी जटिल
तब हो जाती है जब हम यह पाते हैं कि निर्बल तथा निर्धन वर्ग विभिन्न कारणों से जनतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा अपनी
उन्नति सुनिश्चित करने मे स्वतः को असमर्थ तथा असहाय पाता है।
अब, जब हम यह पाते हैं कि यथार्थ में देश की उन्नति
देश के स्वावलंबी बनने में है, तथा, देश
के निर्बल और निर्धन वर्ग की वास्तविक तथा ठोस उन्नति के बिना देश का स्वावलंबी बन
पाना असंभव है, तथा, अंत में, यह की देश का निर्बल तथा निर्धन वर्ग अपना विकास स्वयं करने में असमर्थ है; तब हमारे सामने एक ही प्रश्न रह जाता है की देश के निर्बल और निर्धन वर्ग
को अपनी उन्नति के लिए किस प्रकार सक्षम बनाया जाए? इस कार्य
के लिए किसी भी समृद्ध देश से किसी भी प्रकार के सहयोग की अपेक्षा करना मूर्खता है; क्यों की समृद्ध देशों की समृद्धि आर्थिक रूप से कम विकसित देशों के परावलंबी
बने रहने पर आधारित है।
भारत
का उच्च वर्ग हो या समृद्ध देश, दोनों ही
के हित देश के मध्यम वर्ग के हल्की-फुल्की प्रगति के साथ मध्यम बने रहने से ही सधते
हैं। और, यदि यही मध्यम वर्ग निश्चय कर ले कि वह देश के निर्बल
तथा निर्धन वर्ग को स्वावलंबी बनाने के लिए अपने कुछ स्वार्थों का परित्याग कर जुट
जाए तो एक ऐसे परिवर्तन का शुभारंभ हो जाएगा जिससे आने वाली पीढ़ियाँ पूर्ण रूप से स्वावलंबी
तथा स्वतंत्र भारत में सांस ले सकेंगी। विशेष बात यह है कि, धर्म
तथा टेक्नॉलॉजी, मनुष्य कि दो उत्कृष्ट आध्यात्मिक एवं भौतिक
उपलब्धियाँ, जो इस समय देश के मध्यम वर्ग को भ्रमित कर रहीं हैं
या जिनका दुरुपयोग मध्यम वर्ग को दिग्भ्रमित करने के लिए किया जा रहा है, तब वे ही निर्बल तथा निर्धन वर्ग के उत्थान हेतु मध्यम वर्ग के शुभप्रयासों
हेतु साधन बन जाएंगी।
क्या
इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्ध में भारत के प्रति देश-भक्ति किसी और रूप में परिभाषित
की जा सकती है?
प्रमोद कुमार शर्मा
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