देश की आधी
जनसंख्या, आज भी, न तो सोचने के
लिए स्वतंत्र है और न सोचे हुये को करने के लिए। सच तो यह की वर्षों तक विचारों की
परतंत्रता ने देश की स्त्रियों को स्वतंत्र रूप से सोचने में असमर्थ सा बना दिया
है। किसी मैरथॉन धावक के पैर यदि एक माह तक भी बांध कर रख छोड़े जाएँ तो वह चल फिर
भी न पाएगा। जब स्त्रियों को उनके विचार-स्वातंत्र्य से,
पीढ़ी दर पीढ़ी, वंचित रखा गया है, तब उनसे
स्त्री-स्वभाव के अनुरूप सोचने की आशा कैसे की जा सकती है?
वे तो कुछ ऐसे ढंग से सोचेंगी ही, जो न तो पूर्णरूप से पुरुषोचित होगा न पूर्णरूप से स्त्रियोचित। हम तो शायद यह भी नहीं
जानते की सहज स्त्रियोचित विचार कैसा होता है।
देश
की स्त्रियों का एक बहुत ही बड़ा अंश मानसिक और शाब्दिक (मौखिक) हिंसा का शिकार रहा है। विशेष बात तो यह है कि स्वतंत्र
रूप से सोचने में असमर्थ स्त्रियाँ ही अन्य स्त्रियों पर कि गई मानसिक और मौखिक
हिंसा के लिए एक सीमा तक उत्तरदायी हैं। देश के मध्यम वर्ग कि कन्याएँ जब तक पूर्ण
स्त्रीत्व को ग्रहण करतीं हैं, वे अपनी
सम्पूर्ण सहजता, मौलिकता, आत्मविश्वास और
रचनात्मकता खो चुकी होतीं हैं। यह कहने कि आवश्यकता नहीं कि देश और समाज में
परिवर्तन विशेष रूप से मध्यम वर्ग की क्रांतिकारी विचार क्षमता और कर्मठता से ही
संभव हो पाता है। समाज को उपलब्ध वैचारिक क्षमता की कमी के कारण ही हमारा समाज
खोखली दिखावट और अंधी चकाचौंध पर नाचना तो
सीख रहा है, पर उसमें सत्य के प्रति निष्ठा का पनपना तो दूर, सत्य को सहन करने कि क्षमता भी नहीं बची है।
स्त्रियों
पर शारीरिक हिंसा का मसला भी स्त्रियों पर हो रही मानसिक और शाब्दिक हिंसा से अलग
नहीं है। सत्य और सद्विचारों को ग्रहण करने या जन्म देने में असमर्थ बना दी गई
स्त्रियाँ अपने पुत्रों में स्त्री सम्मान की भावना भी नहीं जगा पातीं, उसे
भी उस मार्ग पर लुढ़का देतीं है जहां स्त्री सम्मान और स्वातंत्र्य के लिए
कोई स्थान नहीं है। ‘स्त्री ही स्त्री की शत्रु है’; यह उक्ति अविचारित और लचर उक्ति है। कटु सत्य तो यह है कि स्त्री ही
स्त्री की शत्रु बना दी गई है; आखिर यही तो गुलाम बनाने की
युक्ति का परम्परागत मंत्र है।
इस
समस्या का समाधान मात्र शासकीय कर्मठता, न्यायिक प्रणाली की गंभीर प्रतिबद्धता या सड़क के धरना-प्रदर्शनों से नहीं
हो सकता; इसके समाधान के लिए आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षणिक तथा वैधानिक आदि सभी नियामक शक्तियों
को एक साथ आकर कठोर प्रयत्न करना होगा। यह तो निश्चित है ऐसे प्रयत्न का नेतृत्व राजनैतिक
नहीं हो सकता, जोकि सदियों से पुरुष-बुद्धि से ग्रसित हो चुका
है; पर यह आवश्यक होगा कि इस प्रयत्न का नेतृत्व स्त्रियों
के हाथ में ही रहे। शायद वह प्रयत्न कुछ ऐसा होगा जिसका कलेवर सामाजिक हो और आत्मा
क्रांतिकारी। इस विषय पर अधिक कहना मूर्खतापूर्ण धृष्टता होगी, क्योंकि हर क्रांति अपनी नियति काफी हद तक स्वयम तय करती है। इस विषय को
अन्य देशों के साथ तुलनात्मक अध्ययन का विषय बनाना भी एक अर्थहीन बुद्धिजीवी
प्रक्रिया है, जिससे जितना दूर रहा जा सके उतना ही अच्छा है।
देश की
स्वतन्त्रता की सत्तरवीं वर्षगांठ पर देश की आधी आबादी का उल्लेख न करना दोषपूर्ण
ही नहीं आपराधिक भी होता, अतः यह छोटा सा
लेख प्रस्तुत है।
वन्देमातरम;
प्रमोद कुमार शर्मा
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