Thursday 4 August 2016

VAGDEVI SPIRITUAL PROCESS [#16165] विवेक और नैतिकता

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विवेक सरलता से प्राप्त नहीं  होता। सद्बुद्धि, सद्भाव, निःस्वार्थता, परमार्थ की ओर प्रवृत्ति, निवृत्ति की ओर स्थिति, वैराग्य, सरलता, सहजता, कपट और हिंसा का नितांत अभाव आदि अनेकों ऐसे गुण हैं जिनको ग्रहण और आत्मसात करने के लिए वर्षों तक प्रयत्न, प्रयोग और अभ्यास करना होता है तथा अनेकों कठिन परीक्षाओं में सफल होना पड़ता तब कहीं जाकर कुछ विवेक स्वभाव और आचरण में परिलक्षित होता है। वर्षों तक विवेकपूर्ण आचरण करने के उपरांत भी मन की गति और बुद्धि-भ्रम अनेकों को अविवेकी बना देते हैं।


राजधर्म में राजा का विवेकशील होना आवश्यक माना गया है। परंतु इतिहास साक्षी है कि विवेकवान शासक गिने-चुने ही हुए हैं। परमार्थ साधन का विशेष अनुभव रखने वाले विवेकवान ज्ञानी व्यक्तियों ने समय समय पर अनेक नीतियाँ बनायीं जिनका पालन और अनुशीलन करने पर सामान्य स्थितियों में जन-जन का कल्याण और संवर्धन सुनिश्चित किया जा सकता है। यह नीतियाँ मनुष्य समाज की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, भौतिक तथा अन्य आवश्यकताओं को न्यायपूर्ण ढंग पूरा करने में सहायक सिद्ध भी हुईं। यह भी पाया गया की ऐसी नीतियों का निःस्वार्थ रूप से पालन करने वाले शासक समय समय पर  बदलती परिस्थितियों के अनुसार नयी नीतियों को गढ़ने में भी न्यूनाधिक रूप में सफल रहे। पर सदा यह ही देखा गया कि किसी सीमा तक कुशल एवं परमार्थी शासक मुख्य रूप से नैतिकता का आश्रय लेने में ही सफल हो सके, न की स्वविवेक का।

यहाँ पर कुछ स्पष्टीकरण आवश्यक हैं। शासक शब्द का अर्थ  मात्र विस्तृत समुदाय के शासन तक सीमित रखना उचित न होगा। शासक छोटे समुदाय, अपने परिवार अथवा स्वयम अपने व्यक्तित्व का भी हो सकता है। दूसरे, नैतिक आधार पर शासन मनुष्य की प्रवृत्तियों और कामनाओं की विध्वंसक पूर्ति पर तो अंकुश लगा सकता है, पर कामनाओं की वृद्धि  और विस्तार पर नहीं। तीसरे, नैतिक आधार पर शासन कदाचित मनुष्य को न तो अपने पतन की ओर अग्रसर होने से रोक सकता है, और न ही उसे अपने आध्यात्मिक उत्थान की ओर प्रवृत्त कर सकता है। नैतिक शासन सामाजिक तथा वैयक्तिक पतन की गति को कम तो कर सकता है, पर उसे रोक कर व्यक्ति और समाज को उत्थान की ओर उन्मुख नहीं कर सकता।

सामाजिक और वैयक्तिक उत्थान राजा और प्रजा, दोनों ही में, विवेक की उत्तरोत्तर वृद्धि द्वारा ही संभव है। परिस्थितियों को सही दृष्टि से देखने की क्षमता, सही परिवर्तन लाने के लिए दृढ़ बुद्धि एवं इच्छाशक्ति और परिवर्तन लाने के उचित आचरण; यह त्याग की भावना और भौतिक जीवन की भ्रमपूर्ण चकाचौंध के प्रति वैराग्य से ही संभव है।

निःसन्देह, नैतिकता तो आवश्यक है ही, पर मात्र नैतिकता ही पर्याप्त नहीं; अनेकों को स्वयं में विवेक  जागृत करने के लिए अथक प्रयत्न करना होगा, परिवर्तन लाने के लिए.


प्रमोद कुमार शर्मा  

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