Saturday, 15 October 2016

धर्म में निरंतर सुधार लाना भी धर्म है

Leave a Comment



सीता रावण के बल के सामने लाचार थीं। रावण की पराजय और अंत तक वह लंका में रहने के लिये बाध्य थीं। उनके चरित्र और पतिव्रत धर्म के उल्लंघन पर संदेह उठना स्वाभाविक था। कहा जाता है कि राम को उनके धर्म पालन के विषय में कोई संदेह नहीं था, फिर भी दूसरों के संदेहों का निदान करने के लिए उन्होने सीता की अग्नि परीक्षा भी ले डाली।

अपने राज्य अयोध्या लौट कर राज्यभार ग्रहण करने बाद राम को ज्ञात हुआ कि उनकी प्रजा के मानस के किसी कोने में सीता के चरित्र पर संदेह का बीज पनप रहा था। यह स्वाभाविक था। राम, लक्ष्मण, हनुमान, विभीषण आदि तो घटना क्रम तथा परिस्थितियों से अवगत थे; उनके लिए सीता के चरित्र पर विश्वास करना सरल था, परन्तु परिस्थितियों से अनभिज्ञ किसी एक अयोध्यावासी के मन में संदेह का उठना अस्वाभाविक नहीं था।

समाज में चरित्र के संबन्ध में जो धारणायेँ और अपेक्षाएँ होतीं हैं वे देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार परवर्तित तो हो सकतीं हैं, परंतु जो कुछ भी किसी काल विशेष, स्थान विशेष अथवा विशेष परिस्थितियों में स्वीकार किया जा  चुका हो उसका निर्वाह सभी को करना उचित तथा अनिवार्य है, चाहे वह राजा हो या प्रजा का कोई नगण्य सा सदस्य। स्वीकृत और मान्य सामाजिक नियमों का उल्लंघन न हो इसका उत्तरदायित्व राजा का ही होता है, ऐसा उस त्रेता युग में प्रचलित था। उल्लंघन होने पर दंड आदि की व्यवस्था भी थी। राम से संबन्धित लगभग सभी ग्रंथ कहते हैं की राम ने सीता को त्याग कर राजधर्म का पालन किया। किन्तु लगभग सभी महत्वपूर्णग्रंथ, बिना स्पष्ट शब्दों का प्रयोग किए पाठक को यह संप्रेषित करने में सफल रहें हैं, कि राम के राजधर्म के पालन करने से उनके द्वारा, जाने अनजाने में एक सत्यनिष्ठ एवं सद्चरित्र नारी के अपमान का अधर्म हो गया।

यदि कोई कहे कि ईश्वर के अवतार राम (जिन्होंने मानव समाज की मर्यादाओं  का कभी उल्लंघन नहीं किया, फलस्वरूप मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए) विवश थे, तो यह स्वीकार नहीं किया जा सकता। कोई  साधारण सा मनुष्य भी, जिसका विवेक जागृत हो चुका हो, कभी विवश नहीं हो सकता, राम तो स्वयम जगत के पालनकर्ता थे। उनके विवश होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

जगदीश्वर के इस अवतार कि कथा यहाँ समाप्त नहीं होती।  वेद व्यास तथा वाल्मीकि सरीखे ग्रंथकार या शास्त्रों के रचयिता साधारण लेखक, कवि आदि नहीं थे। उन्होने अपना सम्पूर्ण जीवन सत्य के शोध और धर्म की धारणाओं को समझने और समझाने के कार्य को अर्पित कर दिया था। कभी कभी तो ऐसा प्रतीत होता है कि ईश्वर के अवतारों ने लोककल्याण हेतु अपनी अभिव्यक्ति ऐसे ही ग्रंथकारों के माध्यम से ही की।

उल्लेखनीय है कि उस समय (त्रेता युग) के सबसे शक्तिशाली  राजा राम द्वारा दंडित परित्यक्ता सीता को महर्षि वाल्मीकि ने अपने आश्रम में आश्रय दिया। इतना ही नहीं उन्होने सीता पुत्रों, लव और कुश, को राम की सम्पूर्ण कथा भली प्रकार बता कर सीता के अपमान को अस्वीकार करने के लिए प्रेरित भी किया। संभवतः, उन्होने ईश्वर के अवतार राम की स्त्री-चरित्र संबंधी धर्म की अवधारणा को खंडित तो नहीं किया, किन्तु राम को पूरी तरह दोषमुक्त भी नहीं किया। यही कारण है कि आज भी भरतभूमि का एक साधारण रामभक्त भी राम के द्वारा सीता के त्याग के बोझ को बौद्धिक स्तर पर जैसे तैसे उठा भी ले, हृदय से सहनीय नहीं मान पाता।

भारतीय दर्शन और चिंतन का सहज मानवीय दृष्टिकोण मानव समाज में धर्म की स्थापना  तो कराता ही है, पर जन-मानस को प्रचलित धार्मिक मूल्यों तथा नियमों में सुधार के लिए सदैव तत्पर भी दीखता है। भारतीय हृदय विभिन्न रूपों और गुणों वाले अनेक देवों को हृदय में बैठाता है, और वे देवगण भी धर्म की भूलों-चूकों का अपराध-बोध स्वयम वहन कर मानव हृदय में करुणा के लिए बहुत स्थान छोड़ देते हैं।

अन्य कई धर्मों की तरह भारतीय (हिन्दू) धर्म की स्थापनायेँ मानव मन में चौकड़ी मार कर बैठ नहीं जातीं, वरन स्वतः के  लिए मन के किसी कोने में स्थान  बना कर, शेष स्थान ईश्वरीय गुणों पर अवलम्बित न्याय और करुणा के मानवीय मूल्यों के लिए छोड़ देतीं हैं।

देश, काल और परिस्थितियों को ध्यान में रख कर अपने कर्तव्य कर्मों में निरंतर सुधार लाना मनुष्य का ऐसा पुनीत कर्तव्य है जिसकी अवहेलना नहीं की जा सकती; अर्थात वह भी धर्म ही है।

प्रमोद कुमार शर्मा                                                                  

0 comments:

Post a Comment

Cool Social Media Sharing Touch Me Widget by Blogger Widgets