अत्यंत
तार्किक मानवबुद्धि ईश्वर के अस्तित्व को तो नकार सकती है क्योंकि ईश्वर का परोक्ष
अनुभव भी आसानी से सुलभ नहीं है, परन्तु करुणा की भावना के
अस्तित्व के दृष्टांत अत्यंत सुलभ हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि ईश्वर पर
विश्वास करना वाला हर व्यक्ति चाहे वह किसी भी संप्रदाय या रिलीजन का हो ईश्वर के
प्रमुख गुण, उसकी करुणा, का ही
आकांक्षी होता है। अनीश्वरवादी भी करुणा को ही विशिष्ट मानवीय गुण मानते हैं तथा
मानवता को परिभाषित करते समय इस मानवीय गुण का बखान करना कभी नहीं भूलते। इसका यह
अर्थ कदापि न लगाना चाहिये कि ईश्वर पर विश्वास करने वाले व्यक्ति में ईश्वरीय
करुणा की इच्छा की बहुलता होती है और स्वयं में दूसरों के प्रति करुणा का किंचित
अभाव होता है।
मनुष्य के मन में किसी
अन्य के कष्टों को देख कर या जान कर, जब (दूसरों के
दुःखों के कारण) दुःख का भाव उत्पन्न होता है, उसे ही करुणा
कहते है। करुणा मन को प्रायः अशांत ही करती है; मन में शांति
का संचार तो नहीं ही करती। फलस्वरूप करुणा के भाव में डूबे मनुष्य का मन, कष्टग्रस्त मनुष्य (या जीव) के दुःख को दूर करने की ओर प्रेरित भी हो
सकता है या सांसारिक सुख-दुःख को भ्रम स्वीकार कर विरक्त भी हो सकता है। विरक्ति
यदि मनुष्य को आध्यात्मिक चिंतन की ओर प्रेरित कर मानवीय जीवन की सीमाओं और
संभावनाओं के ज्ञान, सत्य के शोध और सत्यनिष्ठ जीवनयापन की
दिशा में ले चले तो मनुष्य और मनुष्य जाति का लाभ ही है;
परंतु यह मार्ग अत्यंत कठिन है और बिरले ही इस मार्ग पर चल पाते हैं।
कष्टग्रस्त मनुष्य या जीव
के कष्टों को दूर करने की इच्छा से विमुख हो क्षण-भंगुर सांसारिक सुखों की पूर्ति
को लक्ष्य बना लेने वालों की कमी नहीं, यद्यपि कुल मिला
कर ऐसे लोगों का जीवन अधूरा ही रह जाता है। हाँ, संसार में
ऐसे लोग भी हैं जो करुणा के भाव के वशीभूत हो कर अपने जीवन का न्यूनाधिक भाग
निःस्वार्थ मन से दूसरों के दुःखों के दूर करने के प्रयत्नों को अर्पित करते हैं। वास्तव
में ऐसे ही करुणामय व्यक्तियों के कारण ही संसार में ईश्वरीय न्याय का परिमाण
आसुरी अन्याय के परिमाण से अधिक है, यद्यपि ईश्वरीय न्याय और
आसुरी अन्याय के बीच युद्ध कभी थमता नहीं।
मानवमात्र के भले के लिये
ईश्वरीय न्याय को पृथ्वी पर अक्षुण्ण रखने का उत्तरदायित्व मनुष्य का ही है और इसके
लिये ईश्वर ने मनुष्य को सभी आवश्यक गुण और क्षमतायेँ प्रदान भी की हैं। दुखियों के
कष्ट दूर करने का स्थायी-भाव मन–बुद्धि में स्थापित करना एक अतिविशिष्ट गुण है और इसके
अनुसार आचरण करना मानवधर्म का पालन करना है। हाँ, कभी-कभी कोई-कोई
भावावेश में कष्टदायक शक्तियों और परिस्थितियों
से उग्रतापूर्वक उलझने लगता है, इससे लाभ के स्थान पर हानि होने
लग जाती है। यहाँ पर अहिंसा-धर्म का पालन आवश्यक हो जाता है;
पर करुणा के भाव से जनित धर्म के पालन की अवहेलना करना ईश्वरीय न्याय की अवहेलना करने
जैसा ही है।
प्रमोद कुमार
शर्मा
Many thanks.
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