प्रायः सभी अपने
अपने जीवन में व्यर्थता के आभास से गुज़रते हैं। यह अवसादमयी स्थिति तो होती ही है। अधिकांश लोग कुछ शिकायतें कर के, कुछ दुख मना के, किसी अन्य को अथवा परिस्थितियों को दोष देकर इस अवसाद से समझौता कर लेते
हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जो व्यर्थता से निपटने के लिये पलायन की ओर प्रवृत्त
होकर किसी अन्य दिशा में चल देते हैं, पर देर सबेर स्वयं को
किसी और व्यर्थता में उलझा हुआ पाते हैं। कुल मिला कर अधिकांश लोग जीवन का अधिकांश
व्यर्थताके संग ही गुज़ारते हैं।
ऐसे लोगों की भी कमी नहीं
जिन्होने व्यर्थता से ही जीवन के कई अंगों को आभूषित कर लिया है। यह भी देखा गया
है की ऐसे लोग अन्य लोगों को भी विभिन्न व्यर्थताओं में घसीटते रहते हैं। व्यर्थता
जीवन को कुछ नहीं देती, न अपने जीवन को और न अन्य के जीवन
को।
जीवन में व्यर्थता का आभास
होते ही उससे निवृत्ति का प्रयास आरंभ हो जाना चाहिये, जिसका एकमात्र उपाय है, जीवन की सार्थकता की तलाश।
जब तक जीवन में सार्थकता की तलाश का क्रम नहीं शुरू होता,
व्यर्थता किसी न किसी रूप में दुःख का, अवसाद का, कारण बनती ही रहेगी। सत्य तो यह ही है कि जीवन में व्यर्थता का आभास ही
हमें जीवन की सार्थकता की तलाश के लिए प्रेरित करता है। किसी अन्य के काम आ जाना
जीवन में सार्थकता की तलाश का सबसे सहज और सबसे सरल उपाय है।
प्रमोद कुमार शर्मा
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