Tuesday 11 April 2017

जनतंत्र का अधिकार-काल

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ब राजाओं, सामंतों, जमीदारों और रईसों को अपने कर्तव्यों का भान न रहा और वे केवल अपने ही स्वार्थों और सुख-सुविधाओं की पूर्ति हेतु अपने अधिकारों के विस्तार के लिये अधिकारों की सीमा का उल्लंघन करने लगे, तब प्रतिक्रिया स्वरूप जनतंत्र की अवधारणा अंकुरित हुई। यही कारण है कि जनतंत्र के विचार को भी जन जन के अधिकारों का स्वाभाविक पोषक मान कर निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया को ही जनतंत्र कि पहली और आख़िरी शर्त मान लिया गया।


कभी कभी तो लगता है कि जनतंत्र नियत सीमा अवधि के लिये सत्ता को ठेके पर उठाने की एक शानदार टेण्डर प्रक्रिया से अधिक कुछ भी नहीं। कुछ समय बाद तो चंद ठेकेदार ही खुद ही अप्रूव्ड आल्टरनेटिव बन बैठते हैं, जिससे टेण्डर में भाग ले सकें। एक बार टेण्डर मिल गया तो चार-पाँच साल के लिये सत्ता की ठेकेदारी पक्की। काम भी उतना ही करना है और उनके लिये ही करना है कि टेण्डर भी घूम फिर कर बार बार मिलता ही रहे। देखा यही गया है कि पूरी की पूरी पीढ़ी सत्ता के ठेकेदारों के लुभावने वादों के सहारे जिंदगी गुज़ार देती है और अगली पीढ़ी के लिये नये किस्म के वादे करने वाले सत्ता के नये ठेकेदारों के नाम टेंडर खोल जाती है।

भारत की आज़ादी से पहले महात्मा गांधी ने जनतंत्र के बारे में बहुत कुछ कहा, बहुत कुछ लिखा। उनके अनुसार जनतंत्र जन-जन द्वारा स्वयं अपने ऊपर स्वेच्छा से लगाया हुआ अनुशासन होता है। जनता को बहुत सोच विचार कर ऐसा प्रतिनिधि चुनना चाहिये जो जनता को स्वानुशासन स्थापित करने में मार्गदर्शक की भूमिका का निर्वाह कर सके। यों तो अपने अनुशासन में बंधी जनता अपने जीवनयापन के लिये उचित कर्तव्यकर्मों का चयन करने और उन्हे करने के लिये स्वयं सक्षम होती है तथा इससे दूसरे के मार्ग में बाधा  न पड़े, यह सुनिश्चित करना भी जनता का ही काम है; पर यदि किसी कारण से हितों में टकराव की स्थिति उत्पन्न हो तो उस टकराव को समाप्त करने की उपायों को तलाश करना व सर्व-सम्मति उन्हे लागू करने में जनता की सहायता करना यह भी चयनित जन-प्रतिनिधियों का ही काम है।

गांधी के जनतंत्र में शारीरिक श्रम को जीविकोपार्जन का प्रमुख साधन तथा बौद्धिक श्रम को सत्य-शोध, आत्मसाक्षात्कार तथा जनकल्याण-चिंतन का साधन माना गया है। यह उचित ही प्रतीत होता है, क्योंकि विश्व की जनसंख्या का अतिविशाल अंश जीविकोपार्जन हेतु शारीरिक श्रम पर आधारित रहा है, है और आगे भी रहेगा। अर्थात, अल्पसंख्यक किसी भी जनतंत्र में सहयोगी तो बन सकते हैं पर उसका आधार नहीं बन सकते। एक ओर असत्य, आलस्य, क्रूरता, अन्याय, भय, हिंसा, प्रमाद, लालच, आवश्यकता से अधिक संचय करने की प्रवृत्ति; तथा दूसरी ओर, सरलता, रचनात्मकता, सहनशीलता एवं धैर्य का अभाव; ये किसी भी जनतंत्र को ख़तरे में डाल सकते हैं।

इसमें संशय नहीं कि हमेशा से ही राजा का उत्तरदायित्व न केवल प्रजा का भरण-पोषण एवं  संरक्षण रहा है, बल्कि प्रजा के भौतिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक एवं चारित्रिक विकास के साथ साथ प्रजा की कर्तव्य निष्ठा एवं सामाजिक तथा व्यक्तिगत व्यवहार की उत्कृष्टता से भी राजा की पहचान बनती रही है। यही कारण हैं की राजा को पितातुल्य या देवतुल्य भी माना जाता रहा है। निश्चित रूप से, अपने अधिकारों की रक्षा का दायित्व स्वयं उठाना’, यह जनतंत्र की मात्र एक अतिसंकीर्ण परिभाषा ही मानी जा सकती है।

यों तो सम्पूर्ण विश्व में जनतंत्र का प्रसार तीव्रता से हुआ है, पर उतनी ही तीव्रता से आधुनिक टेक्नालजी या तकनीकवाद का भी प्रसार हुआ है। शायद सारा विश्व तकनीकी बदलाव की चका-चौंध और स्वयं को उसके अनुरूप ढालने में ही इतना व्यस्त हो चुका है कि उसे यह भी अंदाज़ नहीं है कि प्रकृति ने मनुष्य को भोग के सीमित अधिकार दिये हैं जिनकी सीमा का उल्लंघन किसी भी बहुमत द्वारा प्रदत्त अधिकारों से जस्टिफ़ाई नहीं किया जा सकता। निरंकुश भोग समाप्त होने और समाप्त करने की ऐसी प्रक्रिया है जिसमें पुनर्जीवन का कोई स्थान नहीं। यदि विभिन्न प्रजातन्त्र मानव धर्म पर आधारित अपने कर्तव्यों के बंधनों से स्वयं को नियंत्रित नहीं करते तो वह दिन दूर नहीं जब वे शीघ्र ही शक्तिशाली स्वार्थी तत्वों की निरंकुश सत्ताओं के संघ बन कर रह जायेंगे। वह स्थिति कठिन होगी, क्योंकि तब पोषक और शोषक में, शत्रु और मित्र में भेद करना भी कठिन हो जायेगा।


प्रमोद कुमार शर्मा 

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