सूर्य या
दीपक प्रकाश के स्रोत होते है पर अंधकार का कोई स्रोत नहीं होता। अंधकार का अनुभव
तभी होता है जब हम इच्छा अथवा अनिच्छा से प्रकाश के स्रोत से विमुख हो जाते हैं या
प्रकाश का मार्ग चाहे-अनचाहे अवरुद्ध हो जाता है। यही स्थिति सत्य की भी होती है।
जो है वह सत्य ही है; अन्यथा, वह
होता ही नहीं। जब हम, जो है उसे पहचान नहीं पाते या जो नहीं
है उसे सच मान बैठते हैं तो हम असत्य के भ्रमजाल में फंस जाते हैं।
जो कुछ दीख रहा है, प्रतीत हो रहा है, जो कुछ हमें सिखाया गया है या जो
कुछ जीवन-यापन के लिए हमें करना पड़ता है, वह सत्य ही हो यह
कतई आवश्यक नहीं। सत्य को पहचानने की कोई विशेष युक्ति भी नहीं। जो हम जानते हैं
या अनुभव करते हैं, वह भले ही दैनिक जीवन में जितना भी सुख
प्रदान करे, उस पर चिंतन कर उनमें विरोधाभासों को तलाशना, मिल जाने पर उनकी विवेचना करना, और इस प्रक्रिया को
करते रहने की आदत बना लेना; यही एक प्रक्रिया हमें सत्य की
ओर ले जा सकती है।
एक समय आता है जब हम
विरोधाभासों से घिरते जाते हैं और विचलित होने लगते हैं। तब हमें हर विचार
दोषपूर्ण लगता है, हर कथन मिथ्या प्रतीत होता है और
हर कार्य व्यर्थ लगता है; यह स्थिति इंगित करती है कि हम
आंशिक रूप से सत्य को पहचानने कि दिशा कि ओर उन्मुख हो चुके हैं। ऐसे समय इस बात
की सम्भावना कुछ प्रबल हो जाती है कि यदि अनायास ही हम किसी सत्य के प्रवाह के
निकट जा पहुंचे तो हम उस प्रवाह को पहचान सकने में समर्थ हो सकें। वह सत्य का
प्रवाह कोई शास्त्र भी हो सकता है, कोई सत्यनिष्ठ, चरित्रवान और परमार्थी पुरुष भी अथवा कोई घटनाक्रम भी जो सत्य का ऐसा
दृष्टांत उपस्थित करता हो जो सत्य के संधान में सहायक बन सके। यह दोहराना आवश्यक
है कि ऐसी स्थिति तक पहुँच पाना तभी संभव है जब हम असत्य के विरोधाभासों का प्रत्यक्ष अनुभव कर चुके हों।
सत्य के प्रवाह के सानिध्य
की स्थिति में भी मनन और चिंतन द्वारा दैनिक जीवन में उपस्थित विरोधाभासों को
पहचानने की प्रक्रिया में कमी नहीं आनी चाहिये। सत्य और धर्म को पूर्णरूपेण
समर्पित ऋषियों ने भी यह स्वीकार किया है कि जिस प्रकार प्रकाश कहीं भी, कभी भी अवरुद्ध होकर अंधकार उपस्थित कर सकता है,
वैसे ही मन-बुद्धि का छोटा सा भ्रम भी अनंत में व्याप्त सत्य को छुपा कर हमें असत्य
के मार्ग पर ढकेल सकता है। कोई यदि कहे कि वह सत्य को जान चुका है तो मान लेना
चाहिये कि वह अभी भ्रम मुक्त नहीं हुआ। इस जीवन में सत्य को जानने का सतत प्रयत्न
करने वाला ही सत्य के निकट पहुँच सकता है, ऐसे प्रयत्नों को
त्याग देने वाला धीरे धीरे सत्य से विमुख होने लगता है।
प्रमोद
कुमार शर्मा
[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A
Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]
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