सजग समाज
वह होता है जो बदलते हुये समय और बदलती हुई परस्थियों के प्रति
जागरूक रहते हुये स्वयं में परिवर्तन लाने की क्षमता रखता हो। यों तो समय और
परिस्थितियां व्यक्ति को वाह्य परिवर्तनों के अनुरूप स्वयं को ढालने के लिये बाध्य
करती ही हैं, परन्तु वह बाध्यता कुछ अधिक ही कष्टकर होती है।
प्रथम तो व्यक्ति को उन सभी मानसिकताओं को बदलना पड़ता है जिनसे उसके वाह्य आचरण का
अच्छा तालमेल हो चुका होता है; दूसरे, बदले
हुये समय और परिस्थितियों से ‘अनभिज्ञ’
समाज मनुष्य का सहयोगी न बन कर उससे शत्रु सरीखा व्यवहार करने लगता है।
व्यक्ति समाज को बदले हुये
समय के अनुरूप नहीं पाता और सामाजिक परम्पराओं को एक बड़ी बाधा के रूप में देखता है; एवं समाज गिरते हुये मानवीय मूल्यों के लिये व्यक्ति को उत्तरदायी मानते
हुये उसके बदले हुये आचरण पर सारा दोष मढ़ देता है। कुल मिला कर समाज भी दूषित होता
चला जाता है और मनुष्य के दुःख भी बढ़ते चले जाते हैं।
पूर्व में मनुष्य अपनी
बुद्धि का उपयोग अपने भौतिक विकास के लिये एक सीमित रूप में करता था, पर जब से मनुष्य ने आविष्कारों की एक विशेष देहली लांघ ली है, और बात आविष्कारों पर नहीं, आविष्कारों के उपयोग
अर्थात तकनीकी विकास की चल पड़ी है, तब से यह सामाजिक प्राणी
मनुष्य स्वयं को गुणात्मक रफ़्तार से बढ़ते तकनीकी विकास के अनुरूप ढालने में समर्थ
अनुभव नहीं कर पा रहा है। यह कहना कि भौतिक विकास की यह गति मनुष्य के लिये असह्य
है, भले ही सही हो, पर, वस्तुतः नक्कारखाने में तूती की आवाज़ से अधिक कुछ भी नहीं।
अब तक का मनुष्य समाज किसी
रचनात्मक अतिक्रियाशील शक्ति के रूप में नहीं वरन ऐसे प्रतिरोधात्मक संवेग के रूप
में कार्य करता रहा है जो बुलडोज़र की तरह भारी भी हो और उसकी ही तरह सुस्त चाल
वाला भी। कहने का अर्थ है कि यदि तकनीकी परिवर्तन तेज़ घोड़ों पर सवार हैं तो सामाजिक
परम्परायेँ हाथियों की टुकड़ियों पर सवार हो धीमी गति से मनुष्य के स्वार्थों को
नियोजित करने का काम कर रहीं हैं। समय और परिस्थितियों को देखते हुये, अब मनुष्य समाज को अपनी क्रियशीलता में गति लाकर विश्व में हो रहे
अतितीव्र तकनीकी परिवर्तनों से मानव जीवन का तारतम्य बिठाने में मनुष्य की सहायता करनी
होगी व उसमें यह सोच एवं क्षमता भी पैदा करनी होगी कि वह स्वेच्छा से भौतिक विकास और
उसकी गति को उसकी आंतरिक शांति और मानवता के मूल्यों से खिलवाड़ न करने दे।
प्रमोद
कुमार शर्मा
[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A
Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]
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