Monday, 5 June 2017

राजनैतिक सफलता का उत्सव

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किसी भी व्यवस्था में राजनैतिक सफलता सीधे प्रजा के विश्वास से जुड़ती है; और, जनतांत्रिक व्यवस्था में तो निःसन्देह प्रजा का विश्वास उसकी अपेक्षाओं से जुड़ता है। आज तक का इतिहास तो यही बताता है कि प्रजा अपनी आकांक्षाओं और अपेक्षाओं की पूर्ति के लिये केवल आंशिक रूप से ही स्वावलंबी होती है, क्योंकि यदि वह पूर्णरूपेण स्वावलंबी होती, और, स्व के तंत्र से स्वयं को अनुशासित कर पाती, तो न किसी राज्य की आवश्यकता होती, न किसी राजा की और न किसी राजनीति की।


मनुष्य को पिता, राजा या ईश्वर या ऐसे ही किसी परमसेवक की आवश्यकता सदा से रही है; आगे ऐसा नहीं होगा यह मानने का कोई आधार भी नहीं है। जनतंत्र की सोच प्रजा को यह विश्वास दिला देने की सोच है कि वह अपनी भौतिक और सामाजिक सुविधा के लिये अपना परमसेवक स्वयं चुन सकती है। अगर पॉज़िटिव दृष्टिकोण से, एक के आदर्श रूप में देखा जाये तो यह मनुष्य समाज की भौतिक सुरक्षा, सुविधा और विकास के लिये उसकी सामर्थ्यहीनता से प्रयत्नपूर्वक सामर्थ्य को जन्म देने की प्रक्रिया है; अर्थात, इसमें मुख्यतः जनता के उत्तरदायित्व की सोच अधिक है, किसी स्वतः अर्जित अधिकार की कम।

आज जो चलन है उसके अनुसार जनतंत्र में राजनैतिक सफलता जनता के उत्तरदायित्वों की बात करके नहीं मिलती; वह मिलती है उसके अधिकारों की बात करके। ऐसी परिस्थितियों में जनता अपने उत्तरदायित्वों के निर्वाह के प्रति और अधिक लापरवाह हो जाती है, नतीज़ा यह होता है कि आज की राजनैतिक सफलतायें आने वाले कल की राजनैतिक विफलताओं में बदल जाती हैं; और यह क्रम चलता रहता है।

इस विषम स्थिति का एक ही उपाय है, जिसके उपयोग द्वारा केवल राजधर्म का पालन करने वाला राजनैतिक नेतृत्व ही जनकल्याण की प्रक्रिया को कुछ स्थायित्व दे सकता है। वह है राजसत्ता के एकतरफा मोह का त्याग कर रचनात्मक जनसेवा का मार्ग अपनाना, जिससे जनता को अपने उत्तरदायित्वों के निर्वाह के प्रति सचेत और प्रेरित किया जा सके। इस रचनात्मक जनसेवा का एक विशेष लाभ यह भी है कि अपने सामाजिक और मानवीय उत्तरदायित्वों कि ओर उन्मुख जनता धर्मनिष्ठ राजसत्ता की स्थापना के लिये योग्य प्रतिनिधियों का चयन करने में अधिक समर्थ हो जाती है। जैसा कि कहा जा चुका है कि जनतंत्र कि सोच के मूल में जन को उसकी सामर्थ्यहीनता की भावना से मुक्ति दिला कर उसकी सामर्थ्य की ओर ले जाना है, न कि जन को जनसहमति से राजसत्ता पर पूरी तरह अवलंबित बना कर सत्तलोलुपता और निरंकुशता की पुनर्स्थापना करना।

भारत में वर्ष1947 (ब्रिटिशराज से भारत की मुक्ति का वर्ष) से पूर्व महात्मा गांधी द्वारा भारत की आज़ादी का राजनैतिक कार्य करने वाले दल को सत्ता-मोह त्याग कर जन के बीच जाकर रचनात्मक जनसेवा की ओर प्रेरित करने का कारण यही था। जनतंत्र के विचार को सतही तौर पर न लेकर उसे चिन्तन और व्यावहारिक प्रयोगों द्वारा अधिक प्रभावी बनाना एक ऐसी प्रक्रिया है जो निरंतर चलती ही रहनी चाहिये।

प्रमोद कुमार शर्मा  

[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]

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