Wednesday, 23 August 2017

VAGDEVI SPIRITUAL PROCESS [#17216] सत्य का निर्वाह

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पूर्ण सत्य समझ पाना तो लगभग असंभव है ही, पर किसी छोटे से व्यावहारिक सत्य का निर्वाह भी सरल नहीं है। यों तो कभी कभार अवसर की अनुकूलता देख कर  हम किसी व्यावहारिक सत्य के मार्ग पर चल पड़ते हैं या उसके लिए कुछ त्याग कर अपना सहयोग भी प्रदान कर देते हैं, परन्तु यदि उसी सत्य के निर्वाह की आवश्यकता प्रतिकूल परिस्थितियों में  बार-बार पड़ने पर  हम प्रायः टिक नहीं पाते।


देश, परिस्थितियों और काल के अनुसार व्यावहारिक सत्य के स्वरूप व प्रचलन बदलते रहते हैं। विशेष परिस्थितियों, स्थानों अथवा कालखण्डों में सत्य का प्रचलन कम भी हो सकता है, जैसा कि आज है। इसके कारण हैं, मनुष्य के स्वार्थ, भौतिक वस्तुओं से प्राप्य सुखों के प्रति उसका लगाव, भेद भाव, भविष्य में सुखों के अभाव का भय आदि। भयभीत व्यक्ति स्वयं तो कष्ट पाता ही है, वह औरों को भी कष्ट पहुंचा सकता है, और पहुंचाता भी है। अन्याय के मूल में हिंसा ही होती है, जो मानसिक, बौद्धिक, शारीरिक अथवा शाब्दिक किसी भी प्रकार की हो सकती है।

जहां अन्याय है वहाँ असत्य तो है ही। सत्य के मार्ग पर चलने पर अन्याय व हिंसा का सामना तो करना ही पड़ेगा। यही कारण है कि सत्य का निर्वाह कठिन ही होता है। शारीरिक तथा मानसिक कष्ट तो उठाने ही पड़ते हैं, शाब्दिक वाण भी झेलने होते हैं। इसको ही तपना या तप करना कहते हैं। भले ही सत्य कितना भी मामूली हो, उस पर दृढ़ता से टिके रहने से न केवल कठिनाइयों को सहन करने की क्षमता का विकास होता है, वरन भौतिक जगत की असंगतियों, विरोधाभासों, व्यर्थताओं तथा त्याज्य गुणों को साथ-साथ उसमें जो कुछ ग्राह्य है, उसका भी ज्ञान होता है। कष्टों को सह कर भी, स्वयं ही चुने गये व्यावहारिक सत्य पर टिके रहने पर ही संकल्प पूर्ति संभव है।

PROMOD KUMAR SHARMA 

[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]

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