Saturday 19 August 2017

VAGDEVI SPIRITUAL PROCESS [#17215] मनन, चिन्तन और अभ्यास [3]

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अध्ययन, मनन और चिंतन के बाद शास्त्रीय पद्धति में अभ्यास की बात की ही जाती है। प्रायः अध्ययन का अर्थ शास्त्रों व सद्ग्रंथों के अध्ययन से लिया जाता है पर कुछ विचारकों ने स्वयं की सोच, कर्मों, प्रवृत्तियों, वचनों और व्यवहार आदि के अध्ययन, अर्थात आत्मदर्शन को भी अध्ययन का विषय माना है। जो अध्ययन किया गया उसके मनन और उस पर चिंतन के उपरांत अभ्यास का क्रम आता है।


अभ्यास का एक लाभ, जो सीखा और जाना गया उसको आत्मसात करना भी हो सकता है तथा उसको उपयोग में लाना भी। काल के प्रवाह में, परिस्थितियों के परिवर्तन से तथा मन व बुद्धि के अन्यत्र संलग्न होने से जो सीखा व जाना गया उसका विस्मरण हो जाना स्वाभाविक है। अभ्यास द्वारा सीखे गये को याद रखा जा सकता है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो सीखा हुआ व्यर्थ हो जाता है व आवश्यकता पड़ने पर उपयोग में नहीं आ पाता। गणितज्ञ हो या कुंभार,  अभ्यास छोड़ देने पर जो भी अर्जित किया गया है उसे गंवा बैठते हैं।

परंतु संभवतः सीखे हुये के अभ्यास का एक विशेष लाभ भी है; वह है, अर्जित ज्ञान को परिष्कृत करना तथा उसे लोककल्याण हेतु अधिक उपयोगी बनाना। हम जो कुछ भी करते हैं, उसका एक अंश ऐसा होता है जो हमने पहले कभी नहीं किया। अर्थात, हमारे प्रत्येक कर्म का एक अंश प्रायोगिक होता है। यह सर्वविदित है कि ईमानदारी और सावधानी से प्रयोग करने पर कुछ नवीन सृजित होने की सम्भावना तो बन ही जाती है। और, सीखे हुये को लोककल्याण हेतु प्रयोगधर्मी अभ्यास में लाने से सृजित ज्ञान निःसन्देह लोककल्यानार्थ भी हो सकता है। वैसे यह आवश्यक नहीं कि सीखे हुये का अभ्यास भौतिक फल ही दे, फल आध्यात्मिक भी हो सकता है, पर वह विषय या उसकी संभावना यहाँ ऊद्धृत न करने का कारण सिर्फ इस विषय को क्लिष्ट होने से बचाना है, और कुछ नहीं। वैसे यदि अर्जित ज्ञान के प्रयोगधर्मी उपयोग कुछ विशेष सृजित न भी कर पाये तो कोई विशेष हानि नहीं होती क्योंकि उस स्थिति में भी हम, कम से कम, अर्जित ज्ञान के क्रियात्मक स्वरूप व  क्रियात्मक उपयोगिता के बारे में बहुत कुछ सीख ही लेते हैं।

अतः, अभ्यास अर्जित ज्ञान को स्मृति में बनाये रखने, उसे आत्मसात करने, उसे परिष्कृत करने तथा उसकी सहायता कुछ नवीन सृजित करने में विशेष सहायक होता है। हमारा प्रयत्न होना चाहिए कि हम भारतीय दर्शन पर आधारित पद्धतियों का अध्ययन व मनन कर, उनपर चिंतन कर उनका अभ्यास अवश्य करें। हमको और हमारे समाज को लाभ होगा; निःसन्देह होगा।

PROMOD KUMAR SHARMA 

[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]

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