Wednesday 20 January 2016

ऋषि- परम्परा

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अविरल बहती जलधारा का स्रोत दलदल नहीं हो सकता। दूर दूर तक बहने वाली नादियों का उद्गम कठोर अडिग चट्टानें होती हैं। गहन गंभीर और कल्याणकारी विचार भी मनोनिग्रह  द्वारा कठोरता से स्थिर की हुई बुद्धि से उपजते हैं तथा एक निरंतर विचार धारा प्रवाहित होने लगती है। जल-धारा की तरह विचार-धारा भी अवरोधों और ऊबड़-खाबड़ मार्गों से बहती हुई अपना पथ स्वयं तय बनाती है; जल-स्रोत या विचार-स्रोत का जल-धारा या विचार-धारा के मार्ग, उनकी दिशा या उनके प्रवाह द्वारा जनित परिणामों पर कोई अंकुश नहीं होता।


ऋषि परंपरा  न तो मात्र दार्शनिक परंपरा रही है और न केवल शिक्षक परंपरा। ऋषि परंपरा, वास्तव में, मानव कल्याण हेतु पूर्ण दायित्व वहन करने की परंपरा है; यह मनुष्य मात्र, या वस्तुतः, सम्पूर्ण सजीव जगत के कल्याण के लिए अपना सबकुछ उत्सर्ग करने की परंपरा है।

इस युग में ऋषि परंपरा का पुनरुत्थान और पुनर्स्थापना, न्यूनाधिक किसी भी रूप मैं किया जाना  समाज के उन अंगों का दायित्व बनाता है जो समाज कल्याण की  भावना से विमुख नहीं हुये हैं। संभवतः, मनुष्य के पास उत्कृष्ट एवं कल्याणकारी विचारों की कमी नहीं है, कमी है तो ऐसी बुद्धि की जो मानव कल्याण की भावना में सुदृढ़ रूप से स्थित हो और निःस्वार्थ सेवा की ओर प्रवृत्त हो। हम यह भी नहीं कह सकते कि ऐसी बुद्धि उपलब्ध नहीं है, पर यह तो स्वीकार करना होगा कि मानव कल्याण की भावना में स्थिर निःस्वार्थ सेवा की ओर प्रवृत्त बुद्धि के संवर्धन की ओर से हम विमुख होते जा रहें हैं।


प्रमोद कुमार शर्मा

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