प्राचीन भारतीय दर्शन में आत्मोथान तथा जगत कल्याण के लिए
स्वयं के चरित्र निर्माण के प्रति प्रतिबद्धता या कट्टरता तो दीखती है, परंतु किसी विचार या पद्धतिविशेष के लिए अपरवर्तनीय आग्रह किसी
भी रूप में नहीं दीखता। देश, काल अथवा परिस्थितियों के
अनुरूप विचारों और पद्धतियों में परिवर्तन न केवल स्वाभाविक बल्कि आवश्यक भी है।
मनुष्य स्वयं के भौतिक सुख के लिए करे जो भी करे, कम से कम उतना ही दूसरों के लिए भी करे; हो सके तो दूसरों के लिए अधिक करे और अपने लिए कम (क्योंकि
त्याग द्वारा आत्मोथान का स्वार्थ भी सधता है); यही
जगत कल्याण का साधन है। जगत कल्याण कोई कर्म नहीं है जो किया जाए. जगत कल्याण की प्रवृत्ति होने पर जगत कल्याण अनायास ही हो जाने की संभावना
रहती है; यह ‘अकर्म’ अथवा ‘निष्काम कर्म’ है।
यही जगत कल्याण का धर्म है। इस धर्म में स्वयं के प्रति तो कट्टरता है; दूसरों के प्रति कट्टरता का भाव नहीं, अभाव है।
प्रमोद कुमार शर्मा
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