यह बाज़ार और
खरीदने-बेचने का युग है। मशीनें अत्यल्प शारीरिक श्रम से अधिकतम उत्पादन कर सकतीं
हैं। मानव बुद्धि ने जीविकोपार्जन का एक बहुत आसान उपाय/साधन खोज निकाला है; वह है मशीनों द्वारा न्यूनतम लागत से अधिक
से अधिक उत्पादन करना, और फिर उसे हरसंभव प्रयास से अधिकतम
मूल्य पर बेच देना; फिर चाहे उत्पादन ऐसी वस्तुओं का भी हो
जिनकी मनुष्य को वास्तविक आवश्यकता हो अथवा न हो। अनावश्यक वस्तुओं को बेचने या
व्यर्थ अथवा हानिकारक आदतों को डालने के लिए बेचने वाले को आक्रामकता का सहारा
लेना ही पड़ता है, फिर चाहे लुभावने विज्ञापन बार-बार
दिखाने पड़ें,
अनिच्छुक ग्राहक के दरवाजे की घंटी बार-बार बजानी पड़े या हथियार बेचने के लिए
देशों और मानव जतियों के बीच युद्ध कराना पड़े।
सभ्यता
के विकास के साथ जीविकोपार्जन से संबन्धित
आक्रामकता समाप्तप्राय हो जानी चाहिये थी, परंतु स्वार्थपूर्ति के लिए मशीनों के उपयोग ने जनमानस में ऐसी आक्रामकता
घोल दी है की आधुनिक मानव को यह विश्वास सा हो गया है कि स्वभाव में आक्रामकता की
कमी उसे जीवन कि दौड़ में पीछे छोड़ देगी। आज का मानव, मन, वचन और कर्म से, स्वतः के विकास और प्रगति के लिए
आक्रामक बने रहने का अथक प्रयास करता है, और आजीवन करता ही
रहता है।
स्थिति
इतनी विकट हो गई है कि किसी सदुद्देश्य, निःस्वार्थ सेवा अथवा लोककल्याण के लिए भी आज का मानव अपनी आक्रामकता का
त्याग करने को तैयार नहीं है। समय, परिस्थियों, लालच और स्वार्थ की अधिकता के कारण आज का मनुष्य निःस्वार्थ सेवा और लोककल्याण
की भावना तथा प्रयासों को भी शंकापूर्ण दृष्टि से ही देखता है और उसे सहज रूप में
स्वीकार नहीं कर पाता। परिणामस्वरूप लोककल्याण की भावना से निष्ठापूर्वक काम करने
वाले लोग भी असहज, अस्थिर और अधीर होकर ऐसे मानवीय कर्तव्यों
को भी आक्रामक ढंग से करने का यत्न करने लगतें हैं। इस आक्रामकता का परिणाम यह
होता है कि निःस्वार्थ सेवकों तथा ऐसे लोगों के बीच अविश्वास और दूरियाँ बढ़ती चलीं
जाती हैं जिनके सेवा से लाभान्वित होने कि संभावना होती है। सत्य तो यह है कि
निःस्वार्थ सेवा में कृत्रिमता का कोई स्थान नहीं है; परंतु, आक्रामकता निःस्वार्थ सेवा भावना और सेवा की सहजता को आतंकित कर उसे
कृत्रिम बना देती है। इस प्रकार जो आक्रामकता मनुष्य के पतन का कारण बनती है, वही आक्रामकता उसके पुनरोत्थान में भी बाधक बनती है।
निःस्वार्थ
सेवा की सहज भावना तथा लोककल्याण का विचार ही मानवता का आधार है। इसमें बनावट और
आक्रामकता के लिए कोई स्थान नहीं है। यह कठोर सत्य है कि जीवन कि भौतिक आवश्यकताओं
कि पूर्ति में उलझा जनमानस ऐसी भावना तथा विचारों को जीवन का आधार नहीं बना पाता।
यह भी सत्य है कि संसार ऐसे विवेकवान कर्मठ चिन्तकों से कभी भी पूर्ण रूप से रिक्त
नहीं हुआ जो अपनी संवेदनशीलता,
निःस्वार्थ भावना तथा लोककल्याण हेतु सतत तत्परता के कारण मानव जीवन को उत्कृष्ट
बनाने के लिए जीवनपर्यंत प्रयत्नशील रहते हैं। ऐसे श्रेष्ठ व्यक्तियों में
सहिष्णुता, धैर्य तथा सृजनात्मकता का कभी अभाव नहीं रहा। ऐसे
श्रेष्ठ महापुरुषों से मानव समाज का सदा ही दिशा मिलती रही है और शायद आगे भी
मिलती रहेगी। परन्तु व्यवहारिक रूप में मानवता को आदर्श मानने वाले ऐसे सीधे-सादे
संवेदनशील जन तो हमें सरलता से हमारे दैनिक जीवन में ही मिल जाते हैं जिनके बलबूते
पर लोककल्याण साकार रूप में सम्पन्न होता है। ऐसे सीधे-सादे संवेदनशील जन यदि अधीर
हो कर आधुनिक जगत में पनपती आक्रामकता से ग्रस्त होने लगें तो मनुष्य अपने पतन को
रोक पाने में असमर्थ हो जायेगा। यह एक चिंतनीय संभावना है जो विषम समस्या में
परिवर्तित हो सकती है। हमें अपनी आक्रामकता
पर अंकुश लगाना ही होगा।
प्रमोद कुमार शर्मा
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