Thursday, 16 March 2017

दोषरहित जीवन का विचार

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जीवन में दोष आ ही जाते हैं; उनमें से अधिकांश पूर्व की अथवा तात्कालिक परिस्थितियों या भविष्य की आशंकाओं से उपजते हैं। जहां, उन दोषों की दुःखद स्मृतियों को भविष्य के निर्णयों का आधार बनाना आत्महत्या के समान है, वहीं उन दोषों के इर्द-गिर्द घूमते रहना भी नये दोषों  को खाद-पानी देने जैसा है। जीवन के दोषों की ओर से आँखें मूँद कर दुर्भाग्य को कोसते रहने से न तो स्वयं का भला होता है, न अन्य का।


जीवन में आये दोष मन को दूषित भी करते हैं और उसे निर्बल भी बनाते हैं। उनको यथाशीघ्र बुद्धि का विषय बना कर बुद्धि के हवाले कर देना ही श्रेयस्कर है। दोषों के कारण और निवारण का अध्ययन, अर्जित ज्ञान का मनन और उस पर चिंतन बुद्धि को दोषहीनता के सौंदर्य की ओर आकर्षित करने लगती है जिसका प्रभाव मन पर पड़ता ही है, जो दूसरों के दोषों के कारण  मन पर पड़ रहे दुष्प्रभाव या स्वतः के दोषों के कुप्रभाव से मन को मुक्त कर उसे निर्मल बनाता है।

प्रायः सामाजिक व्यवहार का अंधा अनुपालन मन को दूषित करता है, जो सामाजिक जीवन की विभिन्न बाध्यताओं के कारण संक्रामक रोगों की तरह सम्पूर्ण वातवरण को दूषित बनाए रखता है। अतः बच्चों को कच्ची उम्र में कृत्रिम रूप से सुरक्षित असंक्रमित वातावरण में संभाले रखने से कुछ विशेष लाभ नहीं हो पाता, क्यों कि अंततः सभी को सामाजिक वातावरण से साक्षात्कार करना ही होता है। जीवन में अंकुरित होते, पलते, बढ़ते, बाह्य-संक्रमण से जीवन को प्रभावित करते दोषों के निवारण हेतु उन पर बौद्धिक प्रहार के लिये मनोनिग्रह के साथ साथ  वैचारिक स्तर पर भी समुचित तैयारी की आवश्यकता है जिससे कई स्तरों पर लाभ हो सकता है। दोषमुक्त जीवनयापन एक अद्वितीय स्वप्न है और उस स्वप्न को साकार करना अपनेआप में एक विलक्षण ध्येय, जो जीवन के सौन्दर्य में कुछ न कुछ जोड़ता ही चला जाता है, घटाता कुछ भी नहीं।


प्रमोद कुमार शर्मा   

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