जगत
में हर किसी को अपने सम्पूर्ण जीवन को प्रसन्नतापूर्वक जीने का नैसर्गिक अधिकार है, जब यह विचार मन-बुद्धि में दृढ़ हो जाये तो समझना चाहिए कि मनुष्य शरीर
में मानव-जीवन का आरंभ हो गया; अन्यथा,
मात्र मनुष्य शरीर धारण करने से वह पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की तरह प्रकृति के नियमों का पालन करने की प्राकृतिक-बुद्धि किस सीमा तक है, यह निश्चित रूप से कहना कठिन
है।
मनुष्य को जीवन में अपने
या दूसरे के कष्टों और दुखों साक्षात्कार तो हो ही जाता है; परंतु ऐसी विश्लेषणात्मक बुद्धि जो यह सिखाये कि यदि जगत में दुःख हैं तो
वह स्वयं तक भी पहुंचेंगे सहज ही प्राप्त नहीं होती; प्रायः
अधिकांश मनुष्य जीवनपर्यंत ऐसी बुद्धि से वंचित ही रहते हैं। संभवतः, इस कमी को पूरा करने के लिये प्रकृति ने मानव को एक सहज मन दिया है जो
अपने या पराये, किसी के भी दुखों को प्रत्यक्ष देख कर दुख की
अनुभूति से, कम से कम कुछ क्षणों के लिये तो विचलित हो ही
जाता है। दूसरों के दुखों की अनुभूति किसी किसी को बाध्य कर देती है कि वह
अपना-पराया भूल कर अन्य के दुखों के निराकरण हेतु तत्पर हो जाये। ऐसा मानव अपने
जीवन का कुछ अंश किसी दूसरे जीव के कष्टों और दुखों का निराकरण के लिये प्रस्तुत
कर देता है। यही त्याग है।
कुछ ऐसे भी होते हैं जिनकी
मन-बुद्धि में जीव मात्र के दुःखों के प्रति करुणा का भाव और उन दुखों को दूर करने
का संकल्प दृढ़ हो जाता है। वे स्वतः के सुख-दुःख को भूल कर अन्य के कष्टों के निराकरण
हेतु तपस्या को अपने जीवन का उद्देश्य बना लेते हैं। इस तपस्या से ही उन मानवीय गुणों
का प्रादुर्भाव और प्रसार होता है, जिन्हे ईश्वरीय गुण
कहते हैं। वही ईश्वर जो जगत के जन्मदाता और पालक के रूप में हम सभी का संबल बन जाता
है।
मनुष्य से मानव और मानव से
ईश्वर का अंश बनने की प्रक्रिया भले ही असंभव सी प्रतीत हो, है वह सहज ही; शर्त यह है कि मनुष्य अपना सम्पूर्ण जीवन
सहजता को समर्पित कर दे।
प्रमोद कुमार
शर्मा
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