Thursday 30 March 2017

VAGDEVI SPIRITUAL PROCESS [#17200] अनुभूति और अनुभव का अभाव

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पुरातन काल से मनुष्य के बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास के लिये “श्रवण, कीर्तन तथा मनन” की परंपरा रही है। करुणा की तीव्र अनुभूति में स्थित रह कर, जीवनानुभवों पर गहन चिंतन और प्रयोगों के द्वारा अर्जित और संचित ज्ञान को सम्पूर्ण या सूत्र रूप में, सत्य या कल्पित घटनाओं के दृष्टान्तों को माध्यम बना कर श्रोताओं को सुनाना; उन्हे (श्रोताओं को) श्लोकों, मंत्रों या गेय पदों के रूप में उच्चरित करवा के स्मरण करवाना; अंत में उस ज्ञान के मनन का सुझाव देना; यही मार्ग अपनाया था हमारे निःस्वार्थ एवं महाज्ञानी पूर्वजों ने।


हमारे पूर्वज जीवमात्र के दुखों को कम करने के संकल्प को ही जीवन का परमधर्म मानते थे। यही कारण है कि युगों तक ज्ञान, मृत्यु से पूर्व परमार्थ का तथा मृत्योपरान्त मोक्ष का साधन बना रहा। कालान्तर में स्वार्थ ने परमार्थ का स्थान ले लिया तथा मोक्ष धर्मग्रन्थों मे वर्णित मात्र एक शब्द रह गया।

यह अवश्य है कि तब से अब तक ज्ञान (आज इसका जैसा भी रूप प्रचलित हो) के प्रसार का तरीका कुछ अधिक नहीं बदला। जो पहले सिर्फ मौखिक था वह आज लिखित या आडियो-विजुवल हो गया। संभवतः जो चीज़ सिखाई जानी है वह पूर्व की अपेक्षा अधिक स्पष्ट रूप से शिक्षार्थी के मानस पटल पर अंकित की जाने लगी। प्रथमतः ज्ञान भौतिक सुख-सुविधाओं की स्वार्थपूर्ति का साधन बना; दूसरे, ज्ञान देने वाले अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु ज्ञान देने लगे; तीसरे, ऐसे कई उपाय तथा साधन विकसित हो गये जो श्रवण, दर्शन, पुनरावर्तन, मनोरंजन आदि द्वारा मनुष्य के मानस पटल पर वह सब कुछ अंकित करने लगे जो उसके उत्थान हेतु है या पतन के लिये, कोई नहीं जानता।

कुल मिला कर यह तो निश्चित रूप से कहा ही जा सकता है कि आज हर व्यक्ति अपने उत्थान के लिए और अपना पतन रोकने के लिये, व्यक्तिगत रूप में स्वयं ही उत्तरदायी है। परन्तु इसके लिये अनुभूति, अनुभव और प्रयोग करने के स्वभाव और क्षमता विकसित करने के लिये आवश्यक वातावरण के नितांत अभाव की समस्या से कैसे निपटा जाये?

करुणा मनुष्य के स्वभाव में है, वह प्रायः करुणाशून्य हो ही नहीं सकता। बस इतना ही हो सकता है कि करुणा का भाव जागृत करने वाले दृश्य या घटना से दूर होते ही, मनुष्य का चंचल मन कहीं और व्यस्त हो जाये, और करुणा का भाव तिरोहित हो जाये। पर करुणा उत्पन्न करने वाले दृश्य, कारुणिक घटनाओं के कारणों पर मनुष्य के विचारों को अधिक समय तक स्थिर रहने के लिये बाध्य तो कर ही सकते हैं। दूसरों के कल्याण पर विचारों के केन्द्रित कर, निःस्वार्थ लोगों के सनिध्य में रह कर मनुष्य अभ्यास द्वारा करुणा की अनुभूतियों और अनुभवों को स्थायित्व दे सकता है। आधुनिक मनुष्य में प्रयोगशीलता की प्रवृत्ति का अभाव तो है ही नहीं, परंतु आवश्यक वैराग्य तथा तद्जनित साहस का अभाव हो सकता है। ये कमियाँ यथोचित शिक्षा से ही दूर की जा सकती हैं। संभवतः आधुनिक समाज को इसी दिशा में प्रयत्नरत होना पड़ेगा।


प्रमोद कुमार शर्मा

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