मनुष्य
के, या जीवमात्र के अध्यात्मिक
अस्तित्व के संबंध में भारतीय दर्शन व चिंतन इतना गहन है कि उसके अध्ययन, मनन, बुद्धि द्वारा ग्रहण और आत्मसात करने में समस्त जीवन भी अपर्याप्त प्रतीत होता है।
उसमें जो कुछ भी है वह उसे समझने कि इच्छा रखने वाले को उसमें अधिक गहरा उतरने तथा
उसके आधार पर प्रयोग करने और अभ्यास करने को बाध्य करता है। संभवतः, ऐसी स्थिति में उसमें परिवर्तन करने की पूर्ण स्वतन्त्रता के होते हुये
भी, इस पर पुनर्विचार की न तो कभी आवश्यकता प्रतीत हुई न कभी
ऐसा कोई प्रयत्न ही किया गया।
भारतीय
दर्शन और चिंतन मनुष्य को स्थान, काल और परिस्थितियों के अनुसार
जीवनयापन की पद्धतियों एवं सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक आदि भौतिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन करने की न केवल
स्वतन्त्रता प्रदान करता है वरन ऐसा करने के लिये परोक्ष व प्रत्यक्ष रूप में
प्रेरित भी करता है। इसका अर्थ तो यह ही हुआ कि भारतीय दर्शन और चिंतन देश के
आधुनिकीकरण को प्रोत्साहित करता है। विशेष बात यह है कि भौतिक पद्धतियों और
व्यवस्थाओं में परिवर्तन की सीमाएँ कहीं
भी मनुष्य के आध्यात्मिक अस्तित्व के अपरिवर्तनीय सत्य,
अद्वैत और संपूर्णता का उल्लंघन नहीं करतीं। यद्यपि भारत का इतिहास में एक नहीं ऐसे
अनेकों अवसरों का इतिहास है जब क्रांतिकारी परिवर्तनों द्वारा भारत का आधुनिकीकरण हुआ; परंतु गत शताब्दियों में विदेशी आक्रमणों व दासता ने भारतीय दर्शन और
आध्यात्मिक चिंतन से पोषित जनमानस में परिवर्तन तथा आधुनिकीकरण की क्षमता का विचित्र
अभाव सा कर दिया है। देश का आज का प्रबुद्ध वर्ग कुछ सीमा तक और सतही तौर पर देश
की भौतिक आवश्यकताओं से अवगत तो है, परंतु देश की आधारभूत
भौतिक (रचनात्मक और उत्पादक-श्रम संबंधी) एवं बौद्धिक सामर्थ्य तथा आध्यात्मिक
क्षमताओं को समझने और उनका आकलन करने में उसकी दिलचस्पी और प्रयत्न लगभग न के
बराबर रहे हैं।
आज देश
का प्रबुद्ध वर्ग कुछ विशिष्ट देशों की भौतिक स्वार्थपूर्ति की प्रतिस्पर्धात्मक
दौड़ से अर्जित सफलताओं और समृद्धि के मादक आकर्षण से इतना अधिक बंध चुका है कि वह
स्वदेश पर पड़ने वाले इसके तात्कालिक एवं दूरगामी प्रभाव को समझने की योग्यता खो
चुका है। आज परिवर्तन और आधुनिकीकरण के नाम पर जो कुछ भी है वह तथाकथित विकसित
देशों के दर्शन, संस्कृति, दर्शन, भाषा और भौतिक सुख-सुविधाओं पर केन्द्रित जीवन पद्धति की नकल के अतिरिक्त
और कुछ नहीं माना जा सकता। इस परिवर्तन में भारत के जनमानस में रचे-बसे पारंपरिक
दर्शन, संस्कृति, आध्यात्मिक चेतना और
देश के भौगोलिक परिवेश और पर्यावरण के अनुरूप ढली जीवन-पद्धतियों से कुछ भी मेल
नहीं खाता। लगता है कि भरत भूमि पर जहां तहां देशी-विदेशी बीज तो बो दिये जा रहे
हों पर बीज को प्राकृतिक रूप से अंकुरित हो कर स्वस्थ रूप से पनपने के लिये और जो
कुछ आवश्यक है, वह उन्हे न तो प्राप्त है, और न प्राप्य।
होड़, दौड़, और बेताबी में जो कुछ भी हो रहा है वह उलझा
रहा है, थका रहा है तथा मन, बुद्धि तथा
शारीरिक क्षमताओं को क्लांत कर रहा है। ‘माया मिली न राम’, कमोबेश कुछ ऐसी ही स्थिति है भारत में परिवर्तन और आधुनिकीकरण की।
प्रमोद
कुमार शर्मा
[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A
Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]
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