जन्म से
मृत्यु तक की विसंगतियों को जानने और समझ पाने हेतु अपनी क्षमता के अनुसार किये
गये थोड़े-बहुत प्रयत्नों पर ही आधारित होता है हमारा जीवन-दर्शन। यह जीवन-दर्शन
देश, काल और परिस्थितियों के परवर्तित होने पर नित्य परिवर्तित भी होता रहता
है।
जीवन पर आधारित जीवन-दर्शन
में मुख्यतः जीवन को जान कर मानव जीवन के आदर्श प्रतिपादित किये जाते रहें हैं। क्योंकि
इस प्रकार के जीवन-दर्शन में जीवन की नश्वरता बार-बार बाधा उत्पन्न करती रही है, इसीलिये, इस विसंगति के तर्क-संगत हल के लिये
ईश्वर की परिकल्पना का अवलंबन लिया गया; अर्थात, ईश्वर को मान लिया गया।
जीवन को जानने का प्रयत्न
किया गया और आज भी किया जा रहा है; मनुष्य के मन, बुद्धि, शरीर और अहंकार सभी इस काम में लगे हुये
हैं। ईश्वर तो इंद्रियों से अनुभव नहीं किया जा सकता, अतः
उसे इस जगत के कारण, सृजक, पालक और
संहारक के रूप में स्वीकार कर लिया गया है, क्योंकि इस प्रकार
की क्षमतायेँ मनुष्य में नहीं है।
कुल मिला कर यह कहा जा
सकता है कि हमारे जानने और मानने में जो कुछ भी मन-बुद्धि का विषय है वह हमारी
वास्तविक या काल्पनिक क्षमताओं एवं अक्षमताओं पर आधारित है। प्रश्न यह भी उठता है
कि क्या हम अपनी क्षमताओं तथा अक्षमताओं
का सही आकलन करने में समर्थ हैं? अगर नहीं हैं, तो सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा, जब तक हम अपने जीवन में प्रयोगों के द्वारा अपने जीवन के बारे में अधिक, और अधिक, जानें तथा जानने योग्य क्षेत्र का विस्तार
न करते चले जायेँ।
शायद, यही कारण है कि भारतीय जीवन दर्शन मन को स्थिर रख, बुद्धि-बल
से चरम सत्य के शोध को जीवन के प्रमुख ध्येय के रूप में स्थापित करता है। साथ ही यह
भी सुझाव देता है कि जो लोग परिस्थितिवश, पर्याप्त रुचि या अनुकूल
बुद्धि के अभाव में सत्य के शोध का मार्ग पर न चल सकें, वे अनुशासन
और निष्ठा के साथ मानव-धर्म का पालन करते हुये, जीव और प्रकृति
को हानि पहुंचाये बिना, समष्टि के भौतिक जीवन के संवर्धन के लिये
शास्त्रोक्त कर्तव्य-कर्मों को यथाशक्ति करते रहें। इस नियम और व्यवस्था का निर्धारण
न केवल जगत के कल्याण के लिये, बल्कि मानव-जीवन को उत्कृष्ट एवं
अर्थपूर्ण बनाने के लिये किया गया है।
मृत्यु कि वास्तविकता को अनदेखा
कर, भ्रमवश तथा लोभवश इस व्यवस्था को नकार देना आसान तो है, पर इसका विकल्प ढूंढ पाना अब तक संभव नहीं हो सका है। भारतीय जीवन-दर्शन में
बदलती हुई परिस्थियों तथा बदलते हुये समय के कारण जो भी दोष आ गये हों, उनका निराकरण तो अतिआवश्यक है, पर किसी भी विकल्प के
अभाव में, इस व्यवस्था को ही नकार देना न केवल बुद्धिहीनता का
परिचायक है, बल्कि आत्मघाती भी है।
प्रमोद कुमार
शर्मा
[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A
Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]
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