परिवर्तन
दृश्य-जगत का नियम है। हम जो कुछ थोड़ा- बहुत जान सकें हैं, वह दृश्य-जगत के बारे में ही है। यह स्वीकार करने में कि इस दृश्य-जगत का
रचयिता कोई अदृश्य ईश्वर है और उसने ही इस जगत के सतत सुधार हेतु परिवर्तन का नियम
बनाया है, हममें से अधिकांश को कोई आपत्ति भी नहीं। परंतु
ऐसा ही होता है, इस पर हममें से अधिकांश को अधिक विश्वास भी
नहीं।
प्रकृति के अन्य अंगों की
तरह हम भी, किसी सीमा तक देश, काल
तथा परिस्थितियों के अनुसार स्वयं में सुधार लाने के लिये प्रेरित हो सकते हैं और
प्रायः होते भी हैं। स्वयं में सुधार लाने का सबसे सरल उपाय है, जो सुधर चुके हैं उनका अनुकरण करना, अर्थात, बोल-चाल की भाषा में श्रेष्ठ लोगों की नकल करना। दुर्भाग्य है कि आधुनिक शिक्षा, जिसका आधार तर्क-वितर्क-कुतर्क तथा स्वार्थी गणित है, हमें परमार्थिक आचरण और विचारों का अनुकरण करने से विमुख करती है। पहले तो, हम किसी श्रेष्ठ व्यक्ति की श्रेष्ठता का आकलन अपनी ही किसी कसौटी से करना
चाहते हैं और प्रायः अपने अलावा हर किसी को अयोग्य घोषित भी कर देते हैं। दूसरे, यदि कभी-कभार किसी का कुछ अनुकरणीय मान भी लिया, तो
अपने अधकचरे ज्ञान के दंभ में जो कुछ सीखते
भी हैं, वह जो कुछ भी अनुकरणीय होना चाहिये, उससे बिलकुल भिन्न होता है।
हम, आधुनिक युग के ‘फलयोगी’ इतना उलझ
चुके हैं कि अब तो सूखे, सड़े या नीरस फल भी हमारी पहुँच से दूर
हो चुके हैं।
प्रमोद
कुमार शर्मा
[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A
Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]
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