Monday, 26 June 2017

सुधार के लिये परिवर्तन...[2]

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अनुकरण सुधार के लिये परिवर्तन का सबसे सरल मार्ग होते हुये भी आज के तर्क-प्रिय बुद्धिजीवी मानव समाज में लोकप्रिय नहीं है। आज का मनुष्य स्वयं के अनुभवों के माध्यम से ही स्वयं को आश्वस्त करना चाहता है कि सुधार की आवश्यकता है। परंतु, जितने मनुष्य उतने प्रकार के अनुभव और जितने मनुष्य उतने प्रकार की बुद्धियाँ वाली स्थितियाँ, परिवर्तन की सोच को अत्याधिक विषम बना देतीं हैं। मनुष्य जितना ही अपनी बुद्धि पर आश्रित होने का यत्न करता है उतना ही अधिक उलझता जाता है, क्योंकि वह दूसरों के अनुभव-सिद्ध विचारों से मुक्त होकर सोच ही नहीं पाता।


इस सूचना-प्रौद्योगिकी के युग में जब, लगभग सभी, सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते पराई बुद्धि के प्रभाव में जी रहे हैं, तब, जो भी होता है वह परिवर्तन का विक्षिप्त सा रूप होता है। उससे न व्यक्ति का भला होता है, न समाज का। शायद ही कोई हजारों में एक समभाव को समर्पित व्यक्ति स्वतः के अनुभवों से अपने सुधार के लिए परिवर्तन की दिशा और मार्ग निर्धारित कर पाता हो, तथा दृढ़प्रतिज्ञ हो सही मार्ग पर चल निकलता हो।

हाँ, यह उपाय प्राचीन-काल में जब प्रकृति के आँचल में एकांत और विषयों से चित्त को विमुख कर पाना अधिक संभव था, अवश्य ही सफल होता होगा; शायद, इसी कारण उस काल में मानव-जाति के भले के लिये सुधार हेतु परिवर्तन की आवश्यकता की अवधारणा स्थापित भी हुई।

प्रमोद कुमार शर्मा  

[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]

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