Wednesday 20 September 2017

संगठन का कुलबुलाता छत्ता

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क्यों होते हैं मनुष्यों के समूह संगठित? प्रायः ऐसा तभी होता है जब कोई मनुष्य किसी विचार को कार्यरूप में परिणत करने का संकल्प कर लेता है, और उसे लगता है की व्यक्तिगत प्रयासों द्वारा ऐसा करना संभव नहीं। पर, क्या किसी संकल्प पूर्ति के लिये सर्वप्रथम संगठन बनाना सर्वश्रेष्ठ उपाय है? इसके उत्तर में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि शायद नहीं


इसका पहला कारण है कि किसी विचार को कार्यरूप में परिणत करने का संकल्प एक इच्छित स्वप्न के समान होता है, जिसे अनेक व्यक्ति समान रूप से नहीं देख सकते, क्योंकि वह स्वप्न संगठन में शामिल होने वाले हरेक व्यक्ति का होता ही नहीं। वे तो उस संगठन में इसलिए शामिल हो जाते हैं क्योंकि उन्हे कुछ आशा होती है कि संकल्प पूर्ण होने की स्थिति में उनके किसी स्वार्थ की पूर्ति होना संभावित है। स्वप्न तो एक परम सुख प्रदान करने वाले एक काल्पनिक दृश्य के समान होता जो संकल्प करने वाला साकार करना चाहता है। जो संकल्प करता है, उसे स्वप्न के साकार करने के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का भान भी होता है, शायद, तभी तो वह संभावित कठिनाइयों से निपटने के लिये प्रस्तावित संगठन से सहायता की अपेक्षा करता है। संगठन में शामिल होने वाले व्यक्ति, संभावित कठिनाइयों की अनुभूति, संकल्प करने वाले की तुलना में लगभग नहीं के बराबर कर पाते है। यद्यपि अनुभवों के आधार पर, बौद्धिक रूप से वह कठिनाइयों व उनके निराकरण के संबंध में अधिक जानकारी रख सकते हैं, परंतु, जिस चीज़ के पीछे हृदय नहीं, वह किसी न किसी सीमा तक अधूरी रह ही जाती है।

यह तो रही संकल्पपूर्ति हेतु कार्यारंभ से पूर्व की स्थिति। कार्यारंभ के बाद तो सिलसिला शुरू होता है व्यवधानों का , मार्ग में आई कठिनाइयों का, संगठन में आपसी तालमेल की कमी का, मनमुटाव का, एक दूसरे पर दोषारोपण का। जो ऊर्जा संकल्पपूर्ति में लगनी चाहिये, उसका अधिकांश संगठन को जीवित रखने में ही व्यय हो जाता है। मुख्य संकल्प तो कहीं बिसर जाता है; बस संगठन को बनाये रखने और मार्ग में आने वाली समस्याओं के समाधान हेतु जो प्रयास किये जाते हैं, उनके लिये जो अन्य छोटे-बड़े संकल्प किये जाते हैं, उनकी सफलता-विफलता के आकलन में ही समय गुज़रने लगता है।

विपरीत काल और परिस्थियों में मनुष्य-जाति के हित के लिये जो कुछ भी हुआ है वह ईश्वरीय गुणों से सम्पन्न कुछ मनुष्यों के संकल्पों और उनके मानव-सुलभ प्रयासों से ही संभव हो सका है। राम, कृष्ण, व्यास, नारद, दधीचि, परशुराम, विश्वामित्र, जनक, हनुमान, बुद्ध, महावीर, ईसा, जरथुस्त्र, तुलसीदास, नानक, गांधी आदि के व्यक्तिगत प्रयासों से ही विभिन्न कालों और परिस्थितियों से मानव-कल्याण के कुछ ऐसे कार्य  संभव हो सके, जिन्हे आदर्श मान कर आगे आने वाली पीढ़ियों ने भी स्मरण रखा और मानव हित के लिये उनका उपयोग किया। है। इन महापुरुषों में से किसी ने भी अपना कोई संगठन नहीं बनाया; बस, करुणा के वशीभूत होकर मानव-सुलभ संकल्प किये और निकल पड़े; लोग जुड़ते गये, कारवां बनते गये।

आज भी, जो कुछ भी कल्याणकारी होता है, वह किसी पवित्र भावना, दृढ़ संकल्प और कुछ कर्मठ व्यक्तियों के कारवां द्वारा ही संभव हो पाता है; संगठन तो स्वभाव से जड़ और ठस चीज़ है, और, हर संगठन से चिपका होता है मतलबी और आलसी परजीवी जन्तुओं का कुलबुलाता छत्ता।    

प्रमोद कुमार शर्मा

[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]

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