Sunday 17 September 2017

मनुष्य की सीमाएँ

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यों तो आध्यात्मिक चिंतन मनुष्य की सीमाओं को भौतिक रूप में अत्याधिक सीमित और आध्यात्मिक रूप से असीमित आँकता है, पर इस विषय पर व्यावहारिक रूप में विचार करते रहना भी बहुत आवश्यक है। उदाहरणस्वरूप, हम किसी देश के वासियों और उस देश की सीमाओं के संबंध में विचार कर सकते है।


कोई भी देश भौगोलिक स्थितियों, ऐतिहासिक परिस्थितियों, भाषा, संस्कृति, जीवन-दर्शन और जीवन-पद्धतियों की अनुरूपता-विरूपता आदि के आधार पर, मनुष्य द्वारा मानव-समाजों के चाहे-अनचाहे निर्णयों के प्रति आधे-अधूरे-पूरे समर्पणों का परिणाम होता है। किसी भी देश के गठन  के बाद, यह मान लिया जाता है कि देश का प्रत्येक नागरिक मन, वचन और कर्म से देश के अन्य नागरिकों और देश की भौतिक व प्राकृतिक सम्पदा की सुरक्षा और संवर्धन के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध रहेगा; और इसी प्रतिबद्धता के आधार पर वह स्वयं अपनी सुरक्षा और संवर्धन के प्रति आश्वस्त भी हो जायेगा।

देश की सीमाएँ वे व्यावहारिक सीमाएँ होती हैं, जो निर्धारित करती हैं कि देश का हर नागरिक अपनी शारीरिक और बौद्धिक क्षमताओं के बल पर उन्हीं सीमाओं के भीतर रह कर देश के प्रति  अपनी प्रतिबद्धता का निर्वाह सम्पूर्ण निष्ठा के साथ कर सकता है, उनके आगे नहीं। दैनिक कर्तव्यों के निर्वाह की सीमाएँ आंतरिक रूप से ग्राम, नगर, अंचल, प्रांत बना कर तय कर ली जाती हैं, पर देश की सीमाओं को लांघना अविवेक, दुष्प्रयास, दुःसाहस, अतिक्रमण या आक्रमण कुछ भी माना जा सकता है। सीमाओं को लांघ कर दूसरे देश के निवासियों की सेवा करना, उनके साथ मिल कर व्यापार सरीखे हानिरहित कर्मों को करना भी देश के चंद नागरिकों की व्यक्तिगत सोच का परिणाम ही होती हैं, उस देश के सर्वमत या बहुमत की सोच का परिणाम  नहीं। ऐसी सोच के पीछे निहित स्वार्थ भी हो सकते हैं या केवल खोखले अभिमान की अभिव्यक्ति भी।

इतिहास साक्षी है कि जब-जब किसी देश के वासियों ने अपने देश की सीमाएं लांघ कर अन्य किसी देश के वासियों का भला करने का प्रयत्न किया, तो वे दूसरों का भला करने में तो सफल न हो पाये, बल्कि अपने देश का नुकसान भी कर बैठे। दूसरे देशवासी अपनी समस्याओं का समाधान न कर पायेंगे, यह विचार ही अपने-आप में न केवल त्रुटिपूर्ण है, वरन दूसरे की क्षमताओं के मूल्यांकन में स्वतः की खोटी मानसिकता का परिचायक भी है। भौतिक सफलता के सभी नियम सीमित दायरों और सीमित शर्तों पर ही सीमित लाभ प्रदान करने की क्षमता रखते हैं, उसके बाद तो अथक व निरन्तर प्रयास, काम का कल्याणकारी होना, काम करने वाले में भूलों के सुधार की तत्परता का होना आदि ही काम आते हैं।

जिस प्रकार मानव-जाति के सांसरिक सुखों की सीमाएं हैं, उसी प्रकार मनुष्य की  भौतिक कार्य-क्षमता  और कार्य-कुशलता की भी सीमाएं हैं। उन सीमाओं के भीतर रह कर आध्यात्मिक संतोष को प्राप्त करने का प्रयत्न, भौतिक जीवन में भी सौंदर्य का समावेश करता है। हमें यह समझ लेना चाहिये कि सौंदर्य भौतिक तत्व नहीं ईश्वरीय तत्व है। ईश्वरीय तत्व के समावेश से  अनेकों सीमायेँ ख़ुद-ब-ख़ुद टूट जाती हैं।  

प्रमोद कुमार शर्मा

[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]

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