Sunday 1 October 2017

VAGDEVI SPIRITUAL PROCESS [#17219] परम-सत्य के आग्रह की सीमा

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हम अपने लिये कुछ कामनायेँ करें और उनके लिये भरपूर प्रयास भी करें, और, वे पूरी हो ही जायें, यह निश्चित नहीं। हम उनके लिये कुछ कामनायेँ करें जिनसे हमारा स्नेह है, और उनके लिये यथोचित प्रयास भी करें, और, वे पूरी हो जायें, यह भी निश्चित नहीं। यदि हम स्वभाववश दूसरों के दुःखों से दुःखी हो जाते हैं, इसलिए अपने ऐसे दुःखों से मुक्ति प्राप्त करने के लिये दूसरों के दुःख दूर करने का शक्तिभर प्रयास करें, और, दूसरों के दुःख दूर हो जायें, इस संबंध में भी निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।


अपने या दूसरों के दुःख दूर करने के लिये हम अनगिनत प्रयास करने की क्षमता रखते हैं, हम अपने हरेक प्रयास को सफल बनाने हेतु प्रयास करते समय, यत्नपूर्वक, अनेकों  मानसिक अथवा बौद्धिक स्थितियों में स्वयं को स्थित रखने के गंभीर प्रयत्न भी कर सकतें हैं, पर कभी भी यह नहीं कह सकते की हमारा या किसी दूसरे का दुःख हमारे किसी भी प्रयास या किसी विशेष प्रकार के प्रयास द्वारा दूर हो ही जायेगा। हाँ, इस प्रकरण में, संभवतः मात्र इतना ही कहा जा सकता है कि बौद्धिक, मानसिक एवं शारीरिक संयम द्वारा कोई-कोई अपने प्रयासों के फलीभूत होने की संभावनाओं को किंचित बढ़ा सकता है, अर्थात, वह अपनी दुःख निवारण की क्षमताओं का तनिक विस्तार कर सकता है।

क्या यह संतोष का विषय है? कुछ व्यक्ति तो इस संबंध में विचार कर मनुष्य की सामर्थ्य के प्रति उदासीन होकर जीवन की व्यर्थता के दर्शन को स्वीकार कर लेते हैं, पर, कुछ अन्य, मानव-जीवन में मनुष्य की कर्म करने की बाध्यता के कष्ट को पहचान कर उसके उपचार हेतु ऐसे मार्ग की खोज में लग जाते हैं जो मानव-जीवन को एक कल्याणकारी सुयोग के रूप में स्थापित कर सके। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि व्यर्थता का दर्शन एक निराशा को जन्म देता है किसका प्रतिकार अति कठिन है, जबकि कष्ट निवारण के लिये उचित मार्ग कि खोज एक आशा की किरण छितरा देती है, जिसका संवर्धन ऐसी प्रक्रिया है जो प्राणदायिनी हैं। मनुष्य समेत सभी जीव जन्म को स्वाभाविक, आनंददायी, अर्थपूर्ण एवं उत्साह प्रदान करने वाली घटना के रूप  में ही ग्रहण करते हैं। इस घटना (जन्म का होना) की व्यर्थता का बोध भले ही मानव जीवन की किसी उच्चतम और परिष्कृत बौद्धिक प्रक्रिया का परिणाम हो, पर वह जीवनानुभवों की कसौटी पर शत-प्रति-शत खरा नहीं उतरता क्योंकि कोई भी जीव स्वाभाविक रूप से जन्म को एक दुर्घटना के रूप में ग्रहण करता हुआ नहीं देखा जाता।

भौतिक जीवन के दुखों के निवारण करने के लिये किस प्रकार कर्म किया जाये कि मानव-जीवन के दुःखों का न्यूनाधिक कुछ तो निवारण हो, पर उसमें वृद्धि तो कदापि न हो, यही जीवन-दर्शन मनुष्य जाति का प्रेरणा-स्रोत बन सकता है; अन्यथा जीवन की व्यर्थता के परम-सत्य का अधिक आग्रह तो मनुष्य-जाति द्वारा सहज-ग्राह्य व्यावहारिक-सत्यों के प्रभाव को न्यून कर भ्रम के प्रसार को ही बढ़ावा देगा। इसका यह अर्थ नहीं की चरम-सत्य की शोध पर पूर्ण विराम लग जाना चाहिये। इसमें संदेह नहीं कि सत्य की खोज रोकी नहीं जा सकती, और न ही उसे बाधित किया जाना चाहिये, क्योंकि वही खोज परिष्कृत मानव-जीवन के ऐसे आदर्शों की स्थापना करती है, जो व्यावहारिक जीवन-दर्शन में निरंतर सुधार करते रहते हैं।

प्रमोद कुमार शर्मा

[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]

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