परमार्थ के
कार्यों लिये बहीं मात्र कुछ बूंदें ही पसीने की आपके ‘चंचल मन’ को आपका दास बना देतीं हैं। ‘इंद्रियाँ’ सुख की तलाश छोड़,
अपनी समस्त शक्ति आपकी इच्छाशक्ति को अधिक सबल
बनाने में जुट जाती हैं। ‘बुद्धि’ तर्क, वितर्क और कुतर्क करना छोड़ आपके कर्तव्य पालन
हेतु नवीन उपायों का चिंतन करने में
व्यस्त हो जाती है। आपका ‘अहंकार’ किसी
विकट और आक्रामक प्रहार की आशंका से भयभीत हो अन्तर्मन के न जाने किस कोने में दुबक
जाता है।
किसी अति वैरागी और योग्य गुरु
के अधीन रह कर, अति विशिष्ट शास्त्रों के अध्ययन, मनन और चिंतन कर तथा सतत अभ्यास हेतु स्वयं को झोंक कर भी आप जो अर्जित नहीं
कर पाते, वह सब कुछ आप निःस्वार्थ सेवा द्वारा परमार्थ साधन में
मात्र कुछ स्वेद बिन्दु टपका कर ही अर्जित कर लेते हैं।
संभव है, यह प्रत्यक्ष आनंद, आपकी कल्पना के उस अप्रत्यक्ष मोक्ष-सुख
से अधिक आनंददायक हो, जिसकी साधना में आप स्वयम को और अपने मन, इंद्रियों, बुद्धि और अहंकार को वर्षों से सुखा रहे
हों।
परमार्थ हेतु कुछ पसीने की
बूंदों को टपकाने का यह साधन अन्य किसी साधन की अपेक्षा कितना सुलभ और सरल है, यह आश्चर्यजनक है। शैय्या से उठ कर, घर से निकल कर, चार कदम चलने से पहले ही इस सुख को प्राप्त किया जा सकता है।
फिर कठिनाई क्या है? कठिनाई यह है कि इसके लिये दूसरे के दुःख से दुःखी हो जाने के, अर्थात, पर-दुःख-कातरता के स्थायी-भाव से जिस चित्त
को ओतप्रोत होना चाहिये, वह वैसा नहीं होता। कारण? कारण यह है
कि समस्त संसार, नवागंतुक के ‘कल्याण’ के लिये मानव-मन के इस सहज दैवीभाव को शैशवावस्था में ही कुचलना आरंभ कर देता
है, जिससे नवागंतुक अपने जीवन को ‘सुखपूर्वक’ ‘व्यतीत’ कर सके।
‘ज्ञानीजन’ यह बताते हैं कि सभी साधनाओं का यथोचित अभ्यास करने और उनमें पारंगत होने
के
उपरांत भी मोक्ष का आनंद प्रभु-कृपा से ही प्राप्त होता है। यह विडम्बना नहीं तो और
क्या है? पहले तो ‘दैवीभाव’ का उन्मूलन किया जाये, फिर ‘दैवी-कृपा’ कि कामना रखी जाये?
प्रमोद कुमार
शर्मा
This is truly speechless post. Thanks for sharing.
ReplyDeleteLove Problem Solution in Hindi