Saturday 28 November 2015

सदमार्ग पर प्रथम चरण

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श्वर मानव मन के विश्वास से उत्पन्न एक सजीव विचार है। जब मानस दृष्टि व्यष्टि की सीमाओं को तोड़ कर समष्टि में विचरने लगती है तब ईश्वर का सजीव विचार पूर्णरूपेण प्राणवान हो, मृत्यु के अर्धसत्य को लांघ कर अमरत्व के पूर्णसत्य को उजागर करता हुआ, अपने एक ऐसे अस्तित्व को स्वतः सिद्ध करने की प्रबल संभावनाओं को सत्यरूप देने में  लग जाता है जिसमे समष्टि को स्वयं में समा लेने की क्षमता हो। ईश्वर भले ही जीव पर आश्रित न हो, पर ईश्वर का विचार तो जीव (मनुष्य) पर ही आश्रित है।

मानव बुद्धि जीव के अहंकार तथा अपने स्वभाव के कारण व्यष्टि तथा अविश्वास की सीमाओं के बन्धन को तोड़ने में स्वयं को अक्षम सा पाती है, अतः असत्य और आंशिक सत्य के ताने बाने बुनती रहती है। मनुष्य की स्वयं को जीवित रखने की प्रवृत्ति और व्यस्तता इस स्थिति को और अधिक गंभीर बना देती है। अतः मनुष्य अनायास ही अपनी अल्पसामर्थ्य को सामर्थ्य मान कर जन्म से मृत्यु तक का समय अपने अज्ञान को ज्ञान-विज्ञान सिद्ध करने की व्यर्थ चेष्टा में व्यतीत करना चाहता है। साथ ही, क्योंकि मृत्यु का भय उसे छोड़ता नहीं, वह पूर्णसामर्थ्यवान ईश्वर की परिकल्पना से भी चिपका रहना चाहता है; अतः मनुष्य, एक लाचार बुद्धिजीवी, ईश्वर के प्रति अपनी आडंबरपूर्ण आस्था के भ्रम-सागर में गोते लगाते हुये अपनी जीवनावधि व्यतीत करता है।

बुद्धि को सत्यनिष्ठ और आस्थावान बनाना सरल नहीं है। बुद्धि को व्यष्टि से विमुख कर समष्टि की ओर उन्मुख करना अपेक्षाकृत सरल है। इसमे सच्ची और पूर्ण मुक्ति तो नहीं पर एक सीमा तक अज्ञान तथा आडंबर से आंशिक मुक्ति अवश्य है; साथ ही, इसमे विचारों के शुद्ध और परिष्कृत होने की तथा सत्य के प्रति आस्था के दृढ़ होने की संभावनाएं भी है। यह जीवन यात्रा का आदर्श भले ही न हो, सदमार्ग पर रखा गया प्रथम चरण तो है ही।


प्रमोद कुमार शर्मा 

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