मानव जीवन की
उत्कृष्टता मनुष्य के वैज्ञानिक दृष्टिकोण और कर्मठता में है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण
सत्य, निरंतरता, परमार्थ, विनम्रता, सरलता,
पर-दुख-कातरता, अहिंसा, निःस्वार्थता, स्वाध्याय, संतोष, प्रेम, दया आदि की ओर प्रेरित करता है; तथा कर्मठता के लिए
साहस, सहजता, त्याग, अक्रोध, कर्मफल के प्रति वैराग्य, निष्ठा, सत्वसंशुद्धि, स्थितप्रज्ञता
आदि गुणों की आवश्यकता होती है।
इसमें
संशय नहीं कि इस जीवन में जीवन की उत्कृष्टता जो फल देती है वह स्थायी नहीं होता, पर इस जीवन के लिए तो आवश्यक होता ही है; अतः उसकी अवहेलना नहीं कि जा सकती। इसका अर्थ यह नहीं कि इस जीवन को उत्कृष्ट
बनाने कि बाध्यता मात्र जीवित रहने कि थोपी हुई अनिवार्यता के कारण है। पृथ्वी पर जीवन
चुक जाने के बाद भी उत्कृष्टता के न तो नियम बदलते हैं और न साधन। यदि जीवन के बाद
ईश्वर का सानिध्य प्राप्त करना है तो ईश्वरीय गुणों का सहज अभ्यास तो आवश्यक होगा ही।
हो सकता
है कि कभी किसी एक ने पूर्ण निवृत्ति द्वारा विज्ञान के चरमोत्कर्ष से साक्षात्कार
कर लिया हो, फलस्वरूप वह कर्ममुक्त हो
गया हो; पर यह स्थिति दुर्लभ है। दुर्लभ को सुलभ लेना अवैज्ञानिक दृष्टिकोण है और भ्रमोत्पादक है।
जीवन
में प्रमाद और आलस्य से अधिक मृत्यु-भय से त्रस्त करने वाला कुछ भी नहीं है। सच तो
यह है कि प्रमाद और आलस्य ही जीते जी मृत्यु है।
PROMOD KUMAR SHARMA
[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A
Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]
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