Tuesday 8 November 2016

जय श्रीराम [4]

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नमो भगवते उत्तमश्लोकाय नम आर्यलक्षणशीलव्रताय
नम उपशिक्षितात्मन उपासितलोकायनमः साधुवाद निकषनाय
नमो ब्रह्मण्यदेवाय महापुरुषाय महाराजाय नम इति॥
{श्रीमद्भागवत...5.19.3}

नमः उपशिक्षितात्मने... इसका अर्थ है- जिसने अपने मन को अपना शिष्य बना लिया हो। चंचल मन ही अधिकांश उपद्रवों का कारण है। मन में मनुष्य का गुरु बनने की क्षमता तो नहीं है। परंतु उसे (मनुष्य) को जीवन पर्यन्त अपने आकर्षण के पाश में बांधने की ऐसी क्षमता है जो किसी और में नहीं। जिस किसी ने भी अपने जीवन को सही दिशा देने का किंचित भी प्रयास किया हो वह जनता है कि मन को संयमित किए बिना थोड़ी सी भी प्रगति नहीं कि जा सकती।
इस स्तुति में एक ऐसी बात कह दी गई है जिसे समझ पाना, राम के चरित्र तथा आचरण की कल्पना किए बिना संभव नहीं है। वह विशेष बात यह है कि स्तुति यह नहीं कहती कि राम ने मन को अपना दास या बंदी बना लिया; स्तुति कहती है कि उन्होने मन को अपना शिष्य बना लिया। दास या बंदी स्वेच्छा से आदेश का पालन नहीं करता वरन भय से करता है, जबकि शिष्य आदेश का पालन इस लिए करता है क्योंकि वह कहीं न कहीं आदेश के औचित्य को स्वीकार करता है। कहने का तात्पर्य यह कि राम ने वह स्थिति प्राप्त कर ली थी जहां उनका मन सहज रूप से ही संयमित हो गया था।

दूसरी बात यह है कि न केवल साधारण मनुष्य वरन ज्ञानीजन, यहाँ तक कि देवता भी, दूसरे को ही शिष्य बनाने का अवसर पाकर प्रसन्न हो जाते हैं। कुछ तो दूसरे कि त्रुटि पर कठोर दंड कि व्यवस्था करने से भी नहीं चूकते। परंतु राम अपनी ही त्रुटियों के प्रति निरंतर सजग रहते है; वे अपना उदाहरण देते नहीं, बल्कि सदैव उदाहरण बनने के लिए यत्नशील रहते हैं।

उपासितलोकाय का अर्थ है जो लोक की उपासना करे। राम का कथन था कि यदि लोक की आराधना करने के लिए स्नेही को भी छोड़ना पड़े तो छोड़ दूँगा। और, उन्होने सीता को छोड़ भी दिया।ऐसा कर उन्होने पतिधर्म की अवहेलना भी की। कुछ लोग यह मानते हैं कि सीता हरण के उपरांत जिन असंभव स्थितियों का सामना कर उन्होने सीता को रावण से मुक्ति दिलाई वह अपने आप  में उनके पतिधर्म के पालन का पर्याप्त प्रमाण था। परंतु निर्दोष तथा धर्मपारायण सीता का त्याग, वह भी मात्र लोकोक्ति के आधार पर, किसी श्रेष्ठ और सत्यनिष्ठ पुरुष का अनुकरणीय आचरण नहीं माना जा सकता। यदि हम स्वयं को अयोग्य मानते हुये यह स्वीकार कर भी लें कि राजधर्म के लिए प्रतिबद्ध राम का कृत्य अनुकरणीय था, तो भी कालांतर में महर्षि वाल्मीकि की प्रतिक्रिया तथा सीता द्वारा अयोध्या लौटने के संबंध में अस्वीकृति 'लोकधर्म' की विसंगति को तो दर्शाती ही है।
निःसंदेह राज-धर्म और लोक-धर्म के पालन के कारण सीता के त्याग का अथाह दुःख राम ने जीवन पर्यंत एकाकी ही सहन किया, अतः उनकी धर्म निष्ठा पर किसी प्रकार की शंका नहीं की जा सकती। राम के जीवन का यह भाग उनकी जीवन यात्रा तथा आचरण से मिटाया नहीं जा सकता। वह राम जिन्हें हम जानते हैं, मनुष्य रूप में ही अवतरित हुये थे, जिसकी पूर्णता उसकी यात्रा में ही निहित है।

इस आलेख के पांचवां और अंतिम भाग में इसी संदर्भ से आरंभ किया जायेगा।

प्रमोद कुमार शर्मा                                

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