Tuesday 14 February 2017

VAGDEVI SPIRITUAL PROCESS [#17191] निराशा का अभाव

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यों तो हम सभी कोई भी प्रयत्न, चाहे वह किसी भौतिक सुख सुविधा की प्राप्ति के लिए हो, चाहे  वह दूसरे के कष्ट- निवारण हेतु अथवा स्वत: के चारित्रिक उत्थान के लिए, इस आशा के साथ ही करते हैं कि वांछित फल की प्राप्ति होगी; किन्तु साधारण रूप से  सदैव यह मान कर कोई भी शुरुआत नहीं करते कि मार्ग में कोई विघ्न आएगा ही नहीं। अर्थात, एक सहज विश्वास, कि प्रयत्न करने पर कार्य हो जायेगा, हम सभी  को रहता है। इस सहज विश्वास का आधार है, मनुष्य रूप में प्राप्त अपनी शारीरिक और बौद्धिक क्षमता की हमारी जानकारी। इस प्रकार की जानकारी तो सभी जलचर, थलचर और नभचर जीवों में होती है; जो जीवित रहने के लिए उनकी दैनिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए पर्याप्त है।


परंतु, मनुष्य जीवन स्वभावतः और सहज रूप में मात्र जीवित रहने के स्तर से उच्चतर स्तर से ही आरंभ होता है; वह उच्चतर स्तर भौतिक भी हो सकता है और आध्यात्मिक भी। इसका अर्थ तो यही हुआ की मनुष्य में अपनी क्षमताओं (बौद्धिक एवं आधायत्मिक, दोनों ही) को विकसित करने की भी क्षमता है। प्रश्न यह है कि क्या हमें अपनी इस विशेष-क्षमता का यथोचित ज्ञान है? यदि ऐसा नहीं है तो हम अपनी इस विशेष-क्षमता के संबंध में सदैव भ्रम कि स्थिति में ही रहेंगे, और ऐसी भ्रम पूर्णस्थिति में, या तो किसी कार्य के पूरा होने पर अकारण ही अधिक आशावान हो जायेंगे, या किसी असफलता के कारण अपनी क्षमताओं के संबंध में अनुचित रूप से निराशा की भावना से घिर जायेंगे।

मनुष्य का इतिहास  बताता है कि अतिसाधारण मनुष्य भी अध्यात्म के चरम पर पहुँच सकता है या असाधारण चारित्रिक विकास कर सकता है; और भौतिक विकास के शीर्ष पर बैठा मनुष्य भी अधोपतन को प्राप्त हो सकता है। इसका मतलब तो यही है कि आत्मा के उत्कर्ष हेतु निराशा का कोई स्थान नहीं, जहाँ प्रयत्न से सबकुछ संभव है; और भौतिक उन्नति के लिये आशा-निराशा के जाल में उलझने का कोई प्रयोजन नहीं, जहां प्रयत्न पर तो हमारा अधिकार हैं, परन्तु प्रयत्नों के फल पर नहीं है।

ईश्वर ने मनुष्य को शारीरिक और बौद्धिक रूप से सक्षम बनाया और आध्यात्मिक नियमों के अंतर्गत अपनी क्षमताओं को विकसित करने कि असीमित क्षमता भी दी और स्वतन्त्रता भी। बस, समस्त ब्रह्मांड की सुरक्षा हेतु शर्त यह लगा दी कि मानव प्रकृति के नियमों का उलंघन न करे। जो दैवी नियमों (प्रकृति के नियमों) का उलंघन नहीं करते, उनके लिये निराशा का भाव नहीं है; और जो निज-स्वार्थ हेतु दैवी नियमों का उलंघन करने में संकोच नहीं करते, उनके लिये निराशा का अभाव नहीं है।


प्रमोद कुमार शर्मा  

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