जीवन
में कर्म करने ही होते हैं; यहाँ कर्मों से मुक्ति नहीं है।
संचित ज्ञान को आत्मसात करने के लिये, उसे मन-बुद्धि में
स्थिर करने के लिये, उसकी गहराइयों में उतरने के लिये अथवा
उसे उपयोगी बनाने हेतु उसका प्रायोगिक अभ्यास करने के लिये संकल्प भी आवश्यक हैं
और कर्म भी। हम सामाजिक प्राणी भी हैं; समाज के प्रति, जीवमात्र के प्रति तथा आत्मोत्थान के लिये हमारे निश्चित धर्म हैं; धर्म पालन के लिये भी हमें कर्म करने होते हैं। कर्म के लिये हमें अपने
क्रियाशील शरीर, समर्पित मन तथा सजग बुद्धि के साथ जहां
आवश्यक हो वहाँ यथासमय उपस्थित भी रहना होता है।
संकल्पित
कर्म को करने के लिये ऐसी अनेकानेक तत्पर और सजग उपस्थितियाँ आवश्यक तो हैं ही, वे पर्याप्त भी हैं। उपस्थिति का उचित समय वही होता है, जब हमारी आवश्यकता हो और जब हम कर्म करने के लिये तत्पर तथा सजग रूप से
तैयार हों। किसी प्रकार की निष्क्रिय
मानसिक प्रतीक्षा, अवसरों की तलाश तथा कर्म के लिये किसी
शुभसमय के विचार का कोई प्रयोजन नहीं होता। इसी प्रकार कर्मफल की प्रतीक्षा का भी कोई
मूल्य नहीं होता, क्योंकि न तो कर्मफल पर हमारा कोई अधिकार
है और न संकल्पों की उधेड़बुन की व्यर्थ चेष्टा किसी मनोनिग्रह का कोई साधन।
संकल्पों
को सीमित रखते हुये निष्काम भाव से कर्तव्य कर्मों को करते चले जाना, यही आवश्यक भी है और पर्याप्त भी।
PROMOD KUMAR SHARMA
[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A
Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]
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