ऐसा
पड़ोसी, जिसका मन
अशान्त रहता हो, अपने पड़ोसियों की बुद्धि को भ्रमित कर उनके
उत्थान में बाधक बनता है। मन की अशान्ति का मूल कारण है, संतोष
का अभाव। मन की अशान्ति यदि केवल जीवन-यापन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति न हो सकने
के कारण ही हो, तो अशान्त-मन पड़ोसी के संबंध में अधिक निराश होने
की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि, स्थितियों
के अनुकूल होने पर मनुष्य अपने बुद्धिबल, श्रम और कर्मठता द्वारा
अपनी भौतिक समस्याओं का समाधान ढूंढ ही लेता है।
परंतु, यदि मन की अशान्ति आध्यात्मिक अपरिपक्वता या रुग्णता के कारण अथवा बौद्धिक
भ्रम या अतिरेकजन्य असंतुलन के कारण हो तो
किसी सहज और शांतिपूर्ण सुधार की आशा कम ही होती है।
कठोरताओं और विषमताओं से शून्य
भौतिक जीवन की कल्पना, कदाचित, कोई धुंधली
सी छवि भी नहीं बना पाती। भाग्यशाली हैं वे मानवजातियाँ, जिनके
सरल-हृदय और दूसरों के दुःख से दुखी होने वाले विवेकवान पूर्वजों ने जीवन की समस्त
कठोरताओं और इतिहास की क्रूरताओं के आघात सहते हुये भी आने वाली पीढ़ियों के हित के
लिये आध्यात्मिक और भौतिक जीवन में तालमेल बनाये रखने का ज्ञान उपलब्ध करा दिया।
यह भी एक अप्रिय व्यावहारिक
सत्य है कि आज के मनुष्य का मन, मानवजीवन की समस्त विसंगतियों
के साथ-साथ अनेकों मनुष्य-रचित विसंगतियों से जनित कष्टों से दुःख पा रहा है। यही कारण
है कि हम सभी, कम या अधिक, अशांत-मन पड़ोसी
की तरह ही व्यवहार कर रहे हैं। हाँ, यदि हम उन भाग्यशाली लोगों
में हैं जिनके महान पूर्वजों ने हमारे हित के लिये भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में ताल-मेल
बनाये रखने का ज्ञान रख छोड़ा है, तो अच्छे पड़ोसी की तरह व्यवहार
करना हमारा धर्म, हमारा कर्तव्य हो जाता है। कहने की आवश्यकता
नहीं कि, निःस्वार्थ भाव से स्वधर्म का पालन मन को शान्ति प्रदान
करने का सर्व-सुलभ और श्रेष्ठ उपाय है।
प्रमोद
कुमार शर्मा
[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A
Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]
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