सुधार का
तीसरा उपाय है तीव्र और गंभीर तत्वचिंतन तथा आत्मचिंतन द्वारा स्वयं को परिवर्तन
के लिए प्रेरित करना और चिंतन की निरंतरता बनाये रखते हुये सुधार के पथ पर दृढ़ता
से चलते चले जाना। निःसंदेह यह मार्ग उस मार्ग से अधिक श्रेष्ठ है जिसमें मनुष्य
अपने अनुभवों के आधार पर सुधार की आवश्यकता के संबंध में निर्णय लेता है। मनुष्य
अपने जीवनानुभवों की विवेचना किस प्रकार करे, उनसे क्या
निष्कर्ष निकाले, सीधे मार्ग पर चले या उल्टे ही मार्ग पर चल
पड़े, कुछ कहा नहीं जा सकता। सत्य तो यह है कि आधुनिक मानव
अपनी तार्किक बुद्धि पर अवलंबित रह उल्टे मार्ग पर चल ही पड़ा है।
हममें तत्वचिंतन और
आत्मचिंतन की कितनी योग्यता है, यह तो मालूम नहीं, पर यह अवश्य मालूम है कि हर युग में ऐसे उदार, चरित्रवान
चिंतक रहे हैं जिन्होने तत्वचिंतन एवं आत्मचिंतन की सनातन परम्परा के निर्वाह और
संवर्धन हेतु अपने जीवन की अर्पित कर दिया होता है। जो भी मन, बुद्धि, अहंकार की संकीर्ण सीमाओं को लांघ कर सत्य
की शोध की ओर जरा भी प्रेरित होता है, प्रायः सत्यनिष्ठ और
बंधनमुक्त तत्वचिंतकों के सानिद्ध्य को प्राप्त कर ही लेता है।
सत्यनिष्ठ और बंधनमुक्त
तत्वचिंतकों के सानिद्ध्य से जीवनानुभवों की विवेचना और विश्लेषण के दोष भी दूर
होते हैं और अनुकरणीय सी चरित्र की छत्रछाया भी सहज ही प्राप्त हो जाती है। अर्थात, सुधार हेतु परिवर्तन के लिये अनायास ही तीनों उपायों का लाभ प्राप्त हो
जाता है। हमारे प्रचीन ऋषियों ने गुरु की आवश्यकता पर बल अनायास ही नहीं दिया, उसके पीछे लौकिक जगत की उलझन से मुक्ति का ध्येय भी था। बस आवश्यक बात यह
है कि सुधार हेतु परिवर्तन कि इच्छा किसी स्वार्थसिद्धि के लिये न होकर लोककल्याण
और परमार्थ के लिये होनी चाहिये।
प्रमोद
कुमार शर्मा
[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A
Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]
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