Tuesday 15 August 2017

VAGDEVI SPIRITUAL PROCESS [#17215] मनन, चिन्तन और अभ्यास [2]

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जिसका अध्ययन किया गया हो उसका मनन करने से, जो लिखा गया, उसको एक सीमा तक समझने का लाभ तो मिलता है, पर जो लिखा गया वह सही है, उपयोगी है, मिथ्या या  भ्रामक है, अर्धसत्य है अथवा समय और परिस्थियों के बदलने से अर्थहीन ही चुका है इस संबंध में कुछ भी ज्ञात नहीं हो पाता।


इसका समाधान चिंतन द्वारा होता है। चिंतन एक विस्तृत बौद्धिक प्रक्रिया है जिसका उपयोग  वे ही कर पाते हैं जिनमें अर्थपूर्ण प्रश्न करने की क्षमता, सत्य के शोध की उत्कंठा, अध्ययन मनन व जीवनानुभवों द्वारा अर्जित पर्याप्त ज्ञान एवं अनजानी स्थितियों का अनुभव प्राप्त करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति हो। जो या जितना अन्य जान चुके हैं, हम स्वयं जान चुके हैं तथा हमारे और दूसरों के अनुभवों के विशाल भंडार, इन सब की कुल मिला कर कोई सीमा नहीं, अतः जब तक हमारा भौतिक जगत से संबंध है चिंतन की भी कोई सीमा नहीं। यह प्रायः निरंतर चलती  रहने वाली प्रक्रिया ही होती है।


कदाचित मनन गतिशील मन पर विधिवत आंशिक अंकुश लगा कर उसका उचित उपयोग करने की प्रक्रिया है। उसी प्रकार चिंतन निश्चयात्मक बुद्धि के अनुशासित उपयोग पर आधारित प्रक्रिया है। जब भी निश्चयात्मक  बुद्धि की बात होती है, उपयोगी, अनुपयोगी, अर्थपूर्ण, व्यर्थ, ग्राह्य, त्याज्य, तर्कसंगत, असंगत, फलदायी, निष्फल, लाभ, हानि, निष्कर्ष आदि का विचार, विश्लेषण और विवेचना का एक विराट और जटिल साम्राज्य स्थापित हो जाता है, जिसे समझने और समझाने के लिये मनुष्य ने एक विशाल शब्दों का जंगल पहले ही उगा रखा होता है।

अध्ययन मनन और चिन्तन के द्वारा स्थापित अतिविराट और जटिल साम्राज्य पर शासन तो कुछ दृढ़चरित्र और परमार्थ को समर्पित अडिग वैरागी ही कर पाते, शेष तो अपनी अपनी बुद्धिकारा के राजा होने का दंभ लिये ही कालकवलित  हो जाते हैं।

अध्ययन, मनन और चिन्तन का अंतिम चरण अभ्यास है, जिसके बिना मनुष्य जान कर भी अनजाना सा रह जाता है।

यह लेख किसी शास्त्रीय पद्धति पर विचार करने का दावा नहीं करता। इसे केवल इन चार अतिविशिष्ट शब्दों को सामान्य अर्थों में ग्रहण कर एक सामान्य विचार शृंखला की प्रस्तुति के रूप में ही लिया जाये। अगला, अर्थात तीसरा भाग ही इसका अंतिम भाग होगा।  

PROMOD KUMAR SHARMA 

[The writer of this blog is also the author of “Mahatma A Scientist of the Intuitively Obvious” and “In Search of Our Wonderful Words”.]

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