जनकल्याण को ध्यान में रखते
हुये यदि वैश्वीकरण का ईमानदार अर्थ लिया जाये तो वह “परस्परावलम्बन” पर आकर टिक
जाता है, आत्मनिर्भरता तक तो कभी पहुँच ही नहीं सकता| महात्मा गांधी ने देश की आज़ादी
को अंग्रेजों के सत्ता परिवर्तन के रूप में न देख कर खादी और ग्रामोदयोग द्वारा स्वावलंबी
भारत के अभ्युदय के रूप में देखा था। आज़ाद भारत में तो हमने 1965 का पाकिस्तान से
युद्ध भी देखा, फिर एक 2020 में एक कोरोना संक्रमण देखा| 1965 में श्री लाल बहादुर
शास्त्री ने सप्ताह में एक बार उपवास रखने और आँगन में सब्जी उगाने की बात की थी
और 2020 में मोदी जी “आत्मनिर्भरता” की बात कर रहे हैं| समस्या के मूल में विश्व के
देशों के स्वार्थ हैं, जो किसी भी आपदा काल में सतह पर आ सकते हैं| अर्थात, कोई वैश्विक
आपदा हो या विश्वयुद्ध, वैश्वीकरण की सोच में निहित परस्परावलम्बन की भावना (यद्यपि
यह अब तक लगभग नगण्य ही पाई गई है) का संवर्धन तो नहीं करती|
आज क्यों देश की सरकार आत्मनिर्भरता
की बात कर रही है? 1990 के दशक में क्यों हर कोई ग्लोबलाइज़ेशन (वैश्वीकरण) में ही देश का
कल्याण देखता था? चूक आज़ादी के बाद ही हो गई थी| दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सभी आर्थिक रूप से मजबूत बनने
की संभावना रखने वाले देश अपने स्वार्थों के लिए काम करने लगे थे, पर भारत
का भ्रमित नेतृत्व केवल दूसरों द्वारा इस्तेमाल होने में सफल होकर अपने निजी स्वार्थों
को पूरा कर पा रहा था| यह तंद्रा 1990 के दशक के आते-आते टूटने लगी थी। ऐसा नहीं की बचने के रास्ते नहीं खोजे गए, पर अपने
ही परिवारों के लाभ के लिए की जा रही राजनीति (सत्तानीति कहें तो बेहतर होगा) इतनी
शक्तिशाली हो चुकी थी कि उसने जनता को विश्व में चल रही आर्थिक लूट-खसोट की
नीतियों से खुद की रक्षा करने का मार्ग दिखाने के बजाय उसे पतन की ओर ठेलने का काम
ही शुरू कर दिया। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मज़हबी आतंकवाद भी इसी घृणित खेल का ही भाग रहा है और रहेगा| आज प्रायः आम
जनता सत्ता और स्वार्थ के इस गंदे खेल का प्रतिरोध करने में अक्षम हो चुकी है| इस
प्रतिरोधक क्षमता के अभाव का ही एक परिणाम है, कोरोना वाइरस का संक्रमण जैसा
ही एक और संक्रमण जिसने भारत को बहुत सीमा तक परावलंबी बना दिया।
हम इस सीमा तक परावलंबी हो चुके
हैं कि यह भी स्पष्ट रूप से निर्धारित नहीं
कर सकते कि वास्तव में आत्मनिर्भरता क्या हो सकती है। अभी ही देश में पर्यटन
विकास को आत्मनिर्भरता का साधन माना गया। माना, यह देश की आय बढ़ा सकता है; यदि आय विदेशी मुद्रा में हो
तो हम इसे निर्यात बढ़ना भी कह सकते हैं, पर पर्यटन के विकास के लिए हमें मुख्यत: विदेशी पर्यटकों
पर आश्रित रहना ही होगा। इसके विपरीत जैविक खाद, पशुबल आदि पर आधारित खेती और
स्वयं कपास उगा कर अपने ही हाथों से सूत कात कर, हाथ करघे से बुनाई कर वस्त्र
बनाना निःसन्देह स्वयं पर अवलम्बित होकर स्वदेशी के मार्ग पर चलना है। ऊपर जो लिखा
है वह मात्र एक उदाहरण है| आवश्यकता है लीक से हट कर सोचने की, उसी लीक से
हटना है जिसे दूसरों ने हमारे लिए खींच दिया है।
प्रमोद कुमार शर्मा
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