भगवान गणेश को हर हिन्दू जानता और पूजता है। यह मान्यता है कि किसी भी कामना पूर्ति हेतु ग्रह अथवा देवता की पूजा/अर्चना से पहले पहले गणेशजी का पूजन आवश्यक है क्यों कि वे ही समस्त संकल्पों की पूर्ति के मार्ग में विघ्नहर्ता माने जाते हैं।
वर्ष
1893 से पहले पूरे भारत देश में और जगहों की तरह महाराष्ट्र में भी गणेश-चतुर्थी
का पर्व घरों में मनाया जाता था। राष्ट्रभक्त और महाज्ञानी लोकमान्य बालगंगाधर
तिलक ब्रिटिश राज्य से मुक्ति पाने के उद्देश्य से लोगों में राष्ट्रप्रेम की
भावना का संचार करने के लिये गणेश उत्सव को सार्वजनिक रूप से मनाने का आह्वान
किया। उनका प्रयत्न सफल रहा और सम्पूर्ण महाराष्ट्र में गणेशोत्सव सार्वजनिक रूप
से मनाने की प्रथा चल पड़ी। इसका प्रचार महाराष्ट्र से सटे अन्य राज्यों के कई
अंचलों में भी है।
महाराष्ट्र
में होने वाले दस दिवसीय सार्वजनिक उत्सव की भव्यता देख कर धीरे-धीरे देश के अन्य
भागों में भी जनता में इसकी ओर उत्साह बहुत बढ़ा है। इसके प्रचार में हिन्दी
फिल्मों और टेलीविज़न का भी हाथ है।
आज
की सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों में भारतीयों को एक “राष्ट्रीय-पर्व” के बारे में अवश्य सोचना
चाहिये। आपने ‘गणपति बप्पा मोरया’ का उद्घोष अवश्य सुना होगा।
एक पौराणिक कथा के अनुसार सिंधु नाम के असुर का संहार करने के लिये गणेश ने मयूर
को अपना वाहन बनाया था, इसी कारण गणपति “मयूरेश्वर” भी माने जाते हैं। यह भी एक
संयोग है कि मयूर (मोर) राष्ट्रीय पक्षी भी है। सभी तथ्यों, सामयिक आवश्यकताओं और आज कि
परिस्थितियों को देखते हुये क्या हम “गणेशोत्सव’ को एक राष्ट्रीय पर्व की
तरह नहीं मना सकते? वैसे भी रक्षा बंधन से ही देश में उत्साहजंक पर्वों की
शृंखला का आरंभ हो जाता है जो छठ/ कार्तिक पूर्णिमा को ही विराम पाता है।
प्रमोद कुमार शर्मा
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