Sunday, 4 October 2020

पर्यावरण का अध्यात्म

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इस ब्रह्माइस ब्रह्माण्ड में जो भी जन्म लेता है वह अपने जीवन का निर्धारित उद्देश्य पूर्ण करने के उपरांत मृत्यु को प्राप्त होता है| मनुष्य को विधाता ने ऐसी क्षमताएँ दी हैं कि वह प्रकृति पर अन्य जीवों और वनस्पतियों की तुलना में अधिक प्रभाव डाल सकता है|

 

अब देखिये, अभी बहुत समय नहीं बीता जब से मनुष्य ने मात्र अपने ही भौतिक लाभ और सुरक्षा के लिए प्रकृति को ऐसा शत्रु मानना आरम्भ कर दिया, जिस पर विजय प्राप्त करना ही मनुष्य-मात्र की प्रगति और विकास का पर्याय माना जाने लगा|


 

खैर, यह भी सत्य है कि वैज्ञानिक बुद्धि का धनी होने के कारण पिछले कुछ वर्षों से मनुष्य ने “पर्यावरण संतुलन” के सम्बन्ध में चिन्ता व्यक्त करना और समस्या के निराकरण के लिए कुछ काम करना आरम्भ कर दिया है| परन्तु, क्या जो भी किया जा रहा है वह पर्याप्त है?

 

यह सत्य है कि यदि पूरे ब्रहमांड की बात छोड़ भी दें और केवल पृथ्वी की ही बात करें तो भी पृथ्वी पर पाए जाने वाले समस्त जीवों, जड़ और चेतन को उचित प्रकार से बने रहने देने के लिये पर्यावरण की आवश्यकताओं और इकोलोजिकल संतुलन की अनिवार्यताओं के बारे में हमारी जानकारी आज भी अल्प ही है| हम जो कुछ भी थोडा-बहुत आधा-अधूरा जानते हैं वह भी केवल पृथ्वी के विशिष्ट जीव मनुष्य के जीवन के लिये पर्यावरण की आवश्यकताओं के बारे में ही है|

 

उदाहरण के लिये हम यह जानते हैं कि कुछ वृक्ष अपनी श्वसन प्रक्रिया में प्राणवायु का प्रमुख तत्व ऑक्सीजन छोड़ते हैं, जैसे कि पीपल का वृक्ष| पर जब हम पृथ्वी पर कम हो रही वनस्पति, पेड़-पौधों आदि की चिन्ता करते हैं तो केवल हरियाली बढ़ाने की और पेड़ न काटने की बात करते हैं| हमारा व्यावहारिक ज्ञान तो इतना कम है कि हम यह भी नहीं जानते कि पीपल जैसे अधिक ऑक्सीजन उत्सर्जन करने वाले वृक्ष, आयु बढ़ने पर (बूढा होने पर) कम ऑक्सीजन का उत्सर्जन करने लगते हैं; अतः बार बार उनके पत्तों और टहनियों की छंटाई करने बाद उन्हें अंततः काट नये पेड़ लगाना उचित होता है| हम बस प्रायः पेड़ न काटने और जैसे-तैसे हरियाली बढाने का ज्ञान बघारते और बातें सरकाते रहते हैं|

 

हमें जानना होगा कि हमारे पास प्राणवायु की पर्याप्त उपलब्धता किस प्रकार बनी रहेगी, कौन से वनस्पति हमारा पुष्टाहार होंगे, कौन हमारी औषधि बनेंगे, किस प्रकार की वनस्पति अन्य जीवों के लिए आवश्यक होंगी, कौन-कौन से वनस्पति अन्य वनस्पतियों को पुष्ट बनाती हैं? हमें इसका भी आकलन करना होगा कि इकोलॉजिकल खिलवाड़ के किन-किन दुष्परिणामों से आधुनिक विश्व अवगत हो चुका है और कौन-कौन सी जानकारी हमें प्राप्त करना अभी शेष है?

 

समस्या यहीं समाप्त नहीं होती| पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, म्यांमार, नेपाल, इंडोनेशिया, मालदीव, भूटान, श्रीलंका और चीन का बहुत सा भूभाग भारत के साथ मिल कर एक वृहद् भूखंड बनाते हैं जिसकी पर्यावरण और इकोलोजिकल संतुलन के प्रयत्न और आवश्यकतायें सभी पर अलग-अलग और सम्मिलित रूप से अच्छा या बुरा प्रभाव डालती ही होंगी|

 

दुःख की बात यह है कि यह विशाल भूखंड वर्षों तक युद्धों और दासता से अभिशप्त रहा है, अतः यह भूखंड अभी भी अपने पर्यावरण के पोषण और इकोलोजिकल संतुलन की आवश्यकताओं के सम्बन्ध में अभी भी जितना गंभीर होना चाहिये उतना गंभीर नहीं हुआ है| जैसी सावधानी आने वाली पीढ़ियों के स्वास्थ्य और समृद्धि अर्थात सुख के लिये आवश्यक है, उसका बोध में कमी है अथव़ा उसके प्रति इच्छाशक्ति का अत्याधिक आभाव भी है और आपसी ताल-मेल भी अनुपस्थित है| कुल मिल कर, काम छोटा नहीं है, आवश्यक वैज्ञानिक जानकारी की भी कमी नहीं है| इस दिशा में यह भी ध्यान देने योग्य है कि भारतीय दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, जीवन पद्धति और अध्यात्म आदि जो अखण्ड-भारत के लाभ के लिए ही पुरातन काल में हमारे ऋषियों, हमारे निःस्वार्थ पूर्वजों द्वारा  रचा गया है, वह सब वेदों, उपनिषदों और शास्त्रों के नाम से जाना गया| वैदिक काल में अखण्ड-भारत के लाभ के लिए ही गहन शोध और चिंतन के उपरान्त उपजे और प्रचारित उस समस्त ज्ञान-विज्ञान का एक बड़ा अंश जो आने वाली संतति में प्रसारित करने हेतु कभी उपलब्ध था, बाहरी आक्रमणों और हिंसक युद्धों की विभीषिका में नष्ट हो गया| फिर भी, अभी भी बहुत कुछ संवर्धन करने योग्य बचा होगा| यह ध्यान देने का विषय है कि आदिकाल का तथाकथित अखण्ड भारत वही था जी आज ऊपर कहे गये दस देशों का समूह है| भारत को ही इस “पर्यावरण के अध्यात्म” पर पुनः शोध, संवर्धन और प्रसार करना होगा; और, सभी पडोसी देशों को (जिनके पास भी, अवश्य ही, पारंपरिक और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का भण्डार होगा) सामूहिक हितों को ध्यान में रखते हए एक वृहद् सामूहिक प्रयास करना होगा और उसे सार्थक और फलदायी बनाना होगा|

 

प्रमोद कुमार शर्मा

4 अक्टूबर, 2020

 

 

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