Thursday, 4 February 2021

यज्ञ

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 हम प्राय: अपनी जानकारी, समझ, अभिव्यक्ति की क्षमता के आधार पर ही किन्हीं चीजों को (जैसे दिये हुये प्रश्न को) समझ पाते हैं और फिर एक बार उपलब्ध जानकारी, समझ, अभिव्याक्ति की क्षमता के आधार पर दिये गए प्रश्न का उत्तर दे पाते हैं|

पहला प्रश्न है कि प्रवृत्ति क्या है?

ऐसा शरीर प्राप्त करके जिसे किसी अन्तराल तक सफलता पूर्वक जीवित रखने का प्रयत्न करना उस शरीर की बुद्धि के अनुसार अर्थपूर्ण हो; और, यदि ऐसे शरीर को यत्नपूर्वक जीवित रखने की finite probability भी हो, तो ऐसे ही प्रयत्नों में continuously preoccupied रहने कि प्राकृतिक इच्छा (जिससे मुक्त होना लगभग असंभव होता हो), ही को प्रवृत्ति कहा जा सकता है| अतः एक प्रकार से प्रवृत्ति एक बंधन ही है| जब तक जीवन है इससे मुक्त होना लगभग असंभव है| प्रवृत्ति का विपरीतधर्मी शब्द है निवृत्ति| अगर हमने जीने की इच्छा को प्रवृत्ति कह दिया और जीने की इच्छा के अभाव को निवृत्ति कह दिया तो अनर्थ हो जाएगा| अतः हम जीवन से इतना न चिपकें कि जीवन बोझ बन जाये (अर्थात प्रसन्न रखने वाली मुक्ति रहे); और जीवन से इतना भी न भागें कि ज़िंदा लाश बन जाएँ|  स्थूल रूप से इसे महसूस करने पर प्रवृत्ति और निवृत्ति का भेद स्पष्ट होने लगता है|

यज्ञ का सबसे आसानी से समझ में आने वाला अर्थ है, “सर्वोत्तम या सर्वश्रेष्ठ कर्म”| गीता में निष्काम कर्म का महत्व बताया गया है, जो (गीता के अनुसार) बंधन कारक नहीं है| गांधी ने निष्काम कर्म को सेवा से जोड़ा है| बार-बार एक ही सवाल उठता है कि क्या निष्काम कर्म विशुद्ध आनंद” प्रदान कर सकता है? गीता का परमात्मा को समर्पित कर्म और गांधी का सेवा का कर्म कहीं न कहीं ऐसे जीवों या मानव की सेवा है जिसकी उन्हे आवश्यकता है (अर्थात, मन में compassion का भाव स्थायी हो जाना)| ऐसा नहीं कि किसी को कष्ट में देखा तब मन द्रवित हुआ और उसके कष्ट को कम करने की इच्छा जागृत हुई, बल्कि मन द्रवित सा ही बना रहता है यह सोच कर कि बहुत से जीव और मानव हैं जो कष्ट में हैं और बेचैनी है कि उनका दुख कम किए बिना अच्छा नहीं लगता, तब ही compassion eternal और universalize हो सकता है| यह अनुभव-सिद्ध है कि जो कष्ट में हैं उनके कष्ट को कम करने की इच्छा और action दोनों संघटनात्मक प्रयत्नों और उपायों से अधिक व्यापक और अर्थपूर्ण बन सकती है|

अब में एक ऐसी स्थिति का वर्णन करूंगा जो स्वतः कुछ कहने का यत्न करेगी, क्यों कि अनेकों रूपों में ऐसे वर्णन शास्त्रों और पौराणिक कथाओं में आये है| ऐसे एक वर्णन को अधिक स्पष्ट करने के लिये मैं अपनी कल्पना के आधार पर लिख रहा हूँ|

राजा भद्रसेन की कहानी  

सतयुग में भरतखंड के पूर्वोत्तर में युवा राजा भद्रसेन राजतिलक होने के बाद राज्य करने लगा था|  उसके राजतिलक के सातवें दिन एक साधु विचरण करते हुये उसके महल में पधारे| राजा ने उनके सम्मान में खीर बनवाई और साधु व दरबारियों को आमंत्रित किया| साधु ने खीर खाई, पर राजा से प्रश्न किया, “क्या आप को ज्ञात है कि आपके राज्य में अन्न न तो पर्याप्त होता है और न उसमें विशेष स्वाद होता है?”

राजा ने उत्तर दिया, “स्वाद का तो कह नहीं सकता, पर हमारे राज्य में वर्षा कम होती है क्यों कि बादल ऊपर टिकते ही नहीं, अन्यत्र उड़ जाते हैं|”
इस पर साधु ने राजा से कहा कि “अच्छा है कि आपने अपने राज्य की समस्या को जानने का यत्न किया है
| मैं इसी समस्या के निदान के लिये आज यहाँ आया हूँ| समस्या के समाधान के लिए बगल के कई राजाओं ने मेरे विवेदन पर आपके राज्य में आकर एक विशाल यज्ञ करने का निश्चित कर लिया है, वैसे तो वे भी बहुत सी यज्ञ की सामग्री अपने साथ लेकर आएंगे, पर आप और आपकी प्रजा भी यथाशक्ति हवन सामग्री, घी और दान आदि की व्यवस्था करें|” साधु ने यह भी बताया कि अगल बगल के चार-पाँच राज्यों में इस प्रकार ने महायज्ञों का आयोजन का प्रस्ताव उन साधु के गुरुमहाराज का है और वे स्वयं यज्ञ मे उपस्थित होकर सबको उसके लाभ के बारे में अवगत कराएंगे| समय बीतने पर यज्ञ का आयोजन हो गया और साधु के गुरु महाराज ने उपस्थित जनसमूह से कहा|

“इस यज्ञ के महत्वपूर्ण बिन्दु हैं;

एक)                    जनकल्याण की भावना

दो)                         किसी समस्या के निदान के लिये प्रयत्न करने का शुभ निश्चय

तीन)                  समस्या के निदान के लिये निज स्वार्थ को गौण समझना

चार)                    समस्या से निदान के लिये संगठित प्रयास

पाँच)                  समस्या के निदान के लिये संगठित लोगों के प्रति यथा-संभव उपकार प्रदर्शन

छः)                       समस्या के निदान के लिये यह आवश्यक है कि संकुचित सोच से मुक्त होकर विशाल सोच रखते हुये प्रकृति के नियमों का पालन किया जाय

इसके बाद गुरु महाराज ने बताया कि सागर, नदी, तालों, झीलों आदि से जल सूर्य की उष्णता से वाष्पीकृत होकर पवन की सहायता बादलों के रूप में दूर-दूर तक जाता है फिर अनुकूल परिस्थितियों में वाष्प घनीभूत होकर जल बिन्दुओं में बदल जाती है| वायुरूप में वाष्प को घनीभूत (condensed) होने के लिये घी के धूम (smoke) से बादल पुष्ट होते हैं और प्रचुर और भूमि की उर्वरता को बढ़ाने वाली और अन्न को स्वास्थ्यवर्धक बनाने वाली वर्षा होती है|

गुरु महाराज ने यह भी बताया कि मनुष्य को प्रकृति के नियमों के अनुसार ही चलना चाहिये| यदि कोई छोटा राज्य यह समझने की भूल करेगा कि वह संकीर्ण सोच के साथ केवल अपने राज्य में यज्ञ करेगा, तो उसका सफल होना असंभव है क्यों कि प्रकृति तो विशाल भूभाग, वायुमंडल, जल-स्रोत, आकाश और सूर्य की ऊष्मा और प्रकाश से संचालित होती किसी छोटे मानव समूह से नहीं| शायद इसी कारण यज्ञों को कभी संकुचित दायरों में नहीं किया जाता था; दूर दूर से ऋषिगण आया करते थे, अनेकों नदियों का जल आया करता था, यज्ञ सामाग्री की तो थाह ही नहीं हुआ करती थी|

कहानी समाप्त हुई|

इसका आधार था मेरे द्वारा पढ़ा हुआ एक श्लोक जिसमें गाय के घृत में जलती हुई यज्ञ सामग्री से आकाश की ओर उठते हुये धूम से मेघों के पुष्ट होने की बात की गई थी|

यह अवश्य है कि भारतीय शास्त्रों में बड़े राजाओं द्वारा ही यज्ञ किए जाने का वर्णन है जिनको व्यवस्थित रूप से सम्पन्न हुये यज्ञ का फल उनकी प्रजा की समृद्धि और प्रसन्नता से ही प्राप्त होता था| केवल स्वयं के लाभ के लिए तो तपस्या कर देवताओं से वरदान प्राप्त कर लिया जाता था| तपस्या का अर्थ कठोर संयम के साथ कठिन परिश्रम ही है|

गीता में यज्ञ के भी तीन प्रकार बताए गए हैं, जिनमे सात्विक भावना से किया गया यज्ञ श्रेष्ठतम माना गया है| इसमें यज्ञ करने वाले में कोई भी स्वार्थी अपेक्षा नहीं होती, यज्ञ निःस्वार्थ और परमार्थिक सोच से किया जाता है| इस क्रम में दूसरी श्रेणी राजसी यज्ञ की होती है| ऐसे यज्ञ श्रेष्ठ राजा करते हैं और उनमें कुछ इच्छाएं तो होती हैं| यहाँ जनता का हित प्रमुख होता है, पर किसी दूसरे की हानि का कोई विचार नहीं होता|

तामसी यज्ञ भी होते हैं| निजी कामना पूर्ति के लिये स्वार्थवश जो यज्ञादि किए जाते हैं वे ही तामसी यज्ञ होते हैं| कहते हैं कि समय के साथ यज्ञ की विधियों में दोष आ गए हैं, इसी कारण कामनाएं अधूरी रह जाती हैं|

पर, इस वार्तालाप में मैं केवल अत्यावश्यक अल्पतम निजी लाभ सहित मुख्य रूप से परोपकारी मन से शुभ और कल्याणकारी कर्मों के सम्पादन को ही समझने मेँ समर्थ हूँ| यदि कोई इस विषय-वस्तु पर अधिक प्रकाश डाल सकता है, तो उसका स्वागत है|

 

प्रमोद कुमार शर्मा   

हम प्राय: अपनी जानकारी, समझ, अभिव्यक्ति की क्षमता के आधार पर ही किन्हीं चीजों को (जैसे दिये हुये प्रश्न को) समझ पाते हैं और फिर एक बार उपलब्ध जानकारी, समझ, अभिव्याक्ति की क्षमता के आधार पर दिये गए प्रश्न का उत्तर दे पाते हैं|

पहला प्रश्न है कि प्रवृत्ति क्या है?

ऐसा शरीर प्राप्त करके जिसे किसी अन्तराल तक सफलता पूर्वक जीवित रखने का प्रयत्न करना उस शरीर की बुद्धि के अनुसार अर्थपूर्ण हो; और, यदि ऐसे शरीर को यत्नपूर्वक जीवित रखने की finite probability भी हो, तो ऐसे ही प्रयत्नों में continuously preoccupied रहने कि प्राकृतिक इच्छा (जिससे मुक्त होना लगभग असंभव होता हो), ही को प्रवृत्ति कहा जा सकता है| अतः एक प्रकार से प्रवृत्ति एक बंधन ही है| जब तक जीवन है इससे मुक्त होना लगभग असंभव है| प्रवृत्ति का विपरीतधर्मी शब्द है निवृत्ति| अगर हमने जीने की इच्छा को प्रवृत्ति कह दिया और जीने की इच्छा के अभाव को निवृत्ति कह दिया तो अनर्थ हो जाएगा| अतः हम जीवन से इतना न चिपकें कि जीवन बोझ बन जाये (अर्थात प्रसन्न रखने वाली मुक्ति रहे); और जीवन से इतना भी न भागें कि ज़िंदा लाश बन जाएँ|  स्थूल रूप से इसे महसूस करने पर प्रवृत्ति और निवृत्ति का भेद स्पष्ट होने लगता है|

यज्ञ का सबसे आसानी से समझ में आने वाला अर्थ है, “सर्वोत्तम या सर्वश्रेष्ठ कर्म”| गीता में निष्काम कर्म का महत्व बताया गया है, जो (गीता के अनुसार) बंधन कारक नहीं है| गांधी ने निष्काम कर्म को सेवा से जोड़ा है| बार-बार एक ही सवाल उठता है कि क्या निष्काम कर्म विशुद्ध आनंद” प्रदान कर सकता है? गीता का परमात्मा को समर्पित कर्म और गांधी का सेवा का कर्म कहीं न कहीं ऐसे जीवों या मानव की सेवा है जिसकी उन्हे आवश्यकता है (अर्थात, मन में compassion का भाव स्थायी हो जाना)| ऐसा नहीं कि किसी को कष्ट में देखा तब मन द्रवित हुआ और उसके कष्ट को कम करने की इच्छा जागृत हुई, बल्कि मन द्रवित सा ही बना रहता है यह सोच कर कि बहुत से जीव और मानव हैं जो कष्ट में हैं और बेचैनी है कि उनका दुख कम किए बिना अच्छा नहीं लगता, तब ही compassion eternal और universalize हो सकता है| यह अनुभव-सिद्ध है कि जो कष्ट में हैं उनके कष्ट को कम करने की इच्छा और action दोनों संघटनात्मक प्रयत्नों और उपायों से अधिक व्यापक और अर्थपूर्ण बन सकती है|

अब में एक ऐसी स्थिति का वर्णन करूंगा जो स्वतः कुछ कहने का यत्न करेगी, क्यों कि अनेकों रूपों में ऐसे वर्णन शास्त्रों और पौराणिक कथाओं में आये है| ऐसे एक वर्णन को अधिक स्पष्ट करने के लिये मैं अपनी कल्पना के आधार पर लिख रहा हूँ|

राजा भद्रसेन की कहानी  

सतयुग में भरतखंड के पूर्वोत्तर में युवा राजा भद्रसेन राजतिलक होने के बाद राज्य करने लगा था|  उसके राजतिलक के सातवें दिन एक साधु विचरण करते हुये उसके महल में पधारे| राजा ने उनके सम्मान में खीर बनवाई और साधु व दरबारियों को आमंत्रित किया| साधु ने खीर खाई, पर राजा से प्रश्न किया, “क्या आप को ज्ञात है कि आपके राज्य में अन्न न तो पर्याप्त होता है और न उसमें विशेष स्वाद होता है?”

राजा ने उत्तर दिया, “स्वाद का तो कह नहीं सकता, पर हमारे राज्य में वर्षा कम होती है क्यों कि बादल ऊपर टिकते ही नहीं, अन्यत्र उड़ जाते हैं|”
इस पर साधु ने राजा से कहा कि “अच्छा है कि आपने अपने राज्य की समस्या को जानने का यत्न किया है
| मैं इसी समस्या के निदान के लिये आज यहाँ आया हूँ| समस्या के समाधान के लिए बगल के कई राजाओं ने मेरे विवेदन पर आपके राज्य में आकर एक विशाल यज्ञ करने का निश्चित कर लिया है, वैसे तो वे भी बहुत सी यज्ञ की सामग्री अपने साथ लेकर आएंगे, पर आप और आपकी प्रजा भी यथाशक्ति हवन सामग्री, घी और दान आदि की व्यवस्था करें|” साधु ने यह भी बताया कि अगल बगल के चार-पाँच राज्यों में इस प्रकार ने महायज्ञों का आयोजन का प्रस्ताव उन साधु के गुरुमहाराज का है और वे स्वयं यज्ञ मे उपस्थित होकर सबको उसके लाभ के बारे में अवगत कराएंगे| समय बीतने पर यज्ञ का आयोजन हो गया और साधु के गुरु महाराज ने उपस्थित जनसमूह से कहा|

“इस यज्ञ के महत्वपूर्ण बिन्दु हैं;

एक)                    जनकल्याण की भावना

दो)                         किसी समस्या के निदान के लिये प्रयत्न करने का शुभ निश्चय

तीन)                  समस्या के निदान के लिये निज स्वार्थ को गौण समझना

चार)                    समस्या से निदान के लिये संगठित प्रयास

पाँच)                  समस्या के निदान के लिये संगठित लोगों के प्रति यथा-संभव उपकार प्रदर्शन

छः)                       समस्या के निदान के लिये यह आवश्यक है कि संकुचित सोच से मुक्त होकर विशाल सोच रखते हुये प्रकृति के नियमों का पालन किया जाय

इसके बाद गुरु महाराज ने बताया कि सागर, नदी, तालों, झीलों आदि से जल सूर्य की उष्णता से वाष्पीकृत होकर पवन की सहायता बादलों के रूप में दूर-दूर तक जाता है फिर अनुकूल परिस्थितियों में वाष्प घनीभूत होकर जल बिन्दुओं में बदल जाती है| वायुरूप में वाष्प को घनीभूत (condensed) होने के लिये घी के धूम (smoke) से बादल पुष्ट होते हैं और प्रचुर और भूमि की उर्वरता को बढ़ाने वाली और अन्न को स्वास्थ्यवर्धक बनाने वाली वर्षा होती है|

गुरु महाराज ने यह भी बताया कि मनुष्य को प्रकृति के नियमों के अनुसार ही चलना चाहिये| यदि कोई छोटा राज्य यह समझने की भूल करेगा कि वह संकीर्ण सोच के साथ केवल अपने राज्य में यज्ञ करेगा, तो उसका सफल होना असंभव है क्यों कि प्रकृति तो विशाल भूभाग, वायुमंडल, जल-स्रोत, आकाश और सूर्य की ऊष्मा और प्रकाश से संचालित होती किसी छोटे मानव समूह से नहीं| शायद इसी कारण यज्ञों को कभी संकुचित दायरों में नहीं किया जाता था; दूर दूर से ऋषिगण आया करते थे, अनेकों नदियों का जल आया करता था, यज्ञ सामाग्री की तो थाह ही नहीं हुआ करती थी|

कहानी समाप्त हुई|

इसका आधार था मेरे द्वारा पढ़ा हुआ एक श्लोक जिसमें गाय के घृत में जलती हुई यज्ञ सामग्री से आकाश की ओर उठते हुये धूम से मेघों के पुष्ट होने की बात की गई थी|

यह अवश्य है कि भारतीय शास्त्रों में बड़े राजाओं द्वारा ही यज्ञ किए जाने का वर्णन है जिनको व्यवस्थित रूप से सम्पन्न हुये यज्ञ का फल उनकी प्रजा की समृद्धि और प्रसन्नता से ही प्राप्त होता था| केवल स्वयं के लाभ के लिए तो तपस्या कर देवताओं से वरदान प्राप्त कर लिया जाता था| तपस्या का अर्थ कठोर संयम के साथ कठिन परिश्रम ही है|

गीता में यज्ञ के भी तीन प्रकार बताए गए हैं, जिनमे सात्विक भावना से किया गया यज्ञ श्रेष्ठतम माना गया है| इसमें यज्ञ करने वाले में कोई भी स्वार्थी अपेक्षा नहीं होती, यज्ञ निःस्वार्थ और परमार्थिक सोच से किया जाता है| इस क्रम में दूसरी श्रेणी राजसी यज्ञ की होती है| ऐसे यज्ञ श्रेष्ठ राजा करते हैं और उनमें कुछ इच्छाएं तो होती हैं| यहाँ जनता का हित प्रमुख होता है, पर किसी दूसरे की हानि का कोई विचार नहीं होता|

तामसी यज्ञ भी होते हैं| निजी कामना पूर्ति के लिये स्वार्थवश जो यज्ञादि किए जाते हैं वे ही तामसी यज्ञ होते हैं| कहते हैं कि समय के साथ यज्ञ की विधियों में दोष आ गए हैं, इसी कारण कामनाएं अधूरी रह जाती हैं|

पर, इस वार्तालाप में मैं केवल अत्यावश्यक अल्पतम निजी लाभ सहित मुख्य रूप से परोपकारी मन से शुभ और कल्याणकारी कर्मों के सम्पादन को ही समझने मेँ समर्थ हूँ| यदि कोई इस विषय-वस्तु पर अधिक प्रकाश डाल सकता है, तो उसका स्वागत है|

 

प्रमोद कुमार शर्मा   

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